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विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान
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तृतीय अध्याय मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति 63 के अनुसार 1. अवग्रह से गृहीत (ज्ञात) अर्थ के भेद के सम्बन्ध में होने वाली भेद विचारणा अर्थात् विशेष अन्वेषण को ईहा कहते है। भेद अर्थात् वस्तुगत धर्म की मार्गणा ( विचारणा ) ईहा है, यथा अवग्रह से आगे बढ़कर तथा अपाय से पूर्व विद्यमान पदार्थ के सम्बन्ध में विशेष ग्रहण करना तथा अविद्यमान पदार्थ का विशेष रूप से त्याग करते हुए जानना ईहा है। उदाहरणार्थ कौओं के घोंसले आदि स्थाणु (वृक्ष) सम्बन्धी धर्म तो दिखाई दे रहे हैं, किन्तु सिर खुजलाने आदि पुरुषगत धर्म दिखाई नहीं दे रहे हैं, इस प्रकार का मतिज्ञान ईहा कहलाता है।
ईहा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए सर्वप्रथम उदाहरण नंदीसूत्र में प्राप्त होता है जैसेकि किसी व्यक्ति ने अव्यक्त (अस्पष्ट शब्द को सुन कर यह कोई 'शब्द है' इस प्रकार ग्रहण किया, परन्तु वह यह नहीं जान पाया कि 'यह क्या, किसका शब्द है?' तब वह ईहा में प्रविष्ट होता है तथा छानबीन करके यह 'अमुक शब्द है' इस प्रकार जानता है 1364
जिनभद्रगणि ने भी शब्द का ही उदाहरण दिया है डॉ. हरिनारयण पड्या" का मत है कि जिनभद्रगणि के काल तक 'यह शब्द शंख का है कि धनुष का' इसको ईहा रूप माना जाता था। क्योंकि यह शब्द शंख का होना चाहिए, क्योंकि इसमें माधुर्य है, कर्कशता नहीं है। अतः इससे पूर्व संशय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया गया है। ऐसा उल्लेख जिनदासगणी, हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजयजी ने भी किया है । 367
मतान्तर अकलंक ने 'यह शब्द शंख का है कि धनुष का' इस विचार में संशय का अस्तित्व स्वीकार किया है। इसके बाद शंख के विशेष धर्मों की आकांक्षा को ईहा माना है।' इस प्रकार ईहा से पहले नियमतः संशय के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है। लेकिन उसको ईहा से भिन्न माना है। इसका समर्थन धवलाटीकाकार और हेमचन्द्र ने भी किया है 68 ईहा अज्ञान रूप नहीं है
कुछ आचार्य ईहा को संशय रूप मानते हैं। जैसेकि 'यह स्थाणु है या कोई पुरुष' इस प्रकार का अनिश्चयात्मक ज्ञान संशय से उत्पन्न हुआ है और वह ईहा है। लेकिन संशय अज्ञान रूप होता है और ईहा को संशय रूप मानने पर ईहा भी अज्ञान रूप होगी, जो कि सही नहीं है क्योंकि ईहा मतिज्ञान का अंश है तथा वह ज्ञान रूप है जो ज्ञान का भेद होता है, उसकी अज्ञानरूपता मानना संगत नहीं है । 369
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ईहा और संशय में अन्तर
मलधारी हेमचन्द्र ने इन दोनों को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दिया है कि सूर्यास्त के समय जब अन्धकार होने लगा तब कोई व्यक्ति जंगल में गया। उसे दूर स्थित वृक्ष जैसा
363. तेनाऽवगृहीतस्यार्थस्य भेदविचारणं वक्ष्यमाणगत्या विशेषान्वेषणमीहा । विशेषा० भाष्य बृहद्वृत्ति, गाथा 178 - 179, पृ. 90 364. से जहाणामए केई पुरिसे अव्वत्तं सद्दं सुणिज्जा, तेणं सद्दोत्ति उग्गहिए, णो चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ तओ ईहं पविसइ, ओ जाइ अमुगे एस सद्दे नंदीसूत्र पृ. 138-139
365. विशेषाश्यकभाष्य गाथा 256-257, मलयगिरि 366. जैन सम्मत ज्ञान चर्चा, पृ. 102
पृ. 175
367. नंदीचूर्णि पृ. 64, " नन्वीहापि किमयं शांख: किंवा शांर्ग।" मलयगिरि पृ. 182, जैनतर्कभाषा पृ. 16-17
368. तत्वार्थराजवार्तिक 1.15.12, धवला पु. 13, पृ. 217, प्रमाणमीमांसा 1.1.27 369. विशेषाश्यकभाष्य गाथा 182