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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
कुछ दिखाई दिया तो उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि यह वृक्ष है कि पुरुष है। यह स्थिति संशय युक्त है, जो कि अज्ञान रूप है। जब उसने और ध्यान से देखा तो उस वृक्ष पर लताएं चढी हुई हैं, पक्षियों के घोंसले बने हुए हैं, कोई हलन चलन की क्रिया प्रतीत नहीं हो रही है, अत: यह सद्भूत पदार्थ वृक्ष ही होना चाहिए न कि पुरुष । उक्त विचार ईहा युक्त है, क्योंकि यह ज्ञान निश्चय की ओर अभिमुख है, संशय की कोटि से ऊपर उठ गया है। अतः यह स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार का संशयात्मक ज्ञान ईहा नहीं है । अन्वय धर्मों को स्वीकार करने तथा व्यतिरेक धर्मों का निराकरण करने पर जो निश्चयाभिमुखी बोध होता है, वह ईहा है। निश्चय के अभिमुख होने के कारण वह संशय नहीं है तथा निश्चय के प्रत्यासन्न होने मात्र से वह निश्चय भी नहीं है 1370 संशय और ईहा में अन्तर निम्न प्रकार संशय
से है
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ईहा
1. चित्त सदर्थ विवक्षित अर्थ के हेतु और उपपत्ति (संभाव्य व्यवस्थापन) की प्रवृत्ति में संलग्न (आलम्बन) होता है
1. जो मन अनेकार्थ अवलंबन करने वाला होता है। 2.अपर्युदास (निषेध का अभाव ) परिकुंठित (जड़ीभूत) अर्थात् सर्वथा वस्तु सम्बन्धी निश्चय के अभाव को प्राप्त अर्थात् अनिर्णय की अवस्था होती है 3. चित्त की जड़ीभूत अवस्था वस्तु की अनिश्चायकता होती है ।
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2. पर्युदास (निषेध युक्त ) अर्थात् निर्णय की अवस्था अमिथ्या, अमोघ चित्त होता है,
3. यथार्थ के ग्रहण और अयथार्थ के परित्याग में
6. संशय में स्थाणु - पुरुष आदि अनेक विशेष अर्थ का अवलम्बन होता है, परन्तु एक भी अर्थ का निषेध नहीं होता है ।
7. संशय में कुंठित हुआ चित्त सो जाता है।
4.सुप्त की भांति सर्वात्मना वस्तु का अनवबोध है। सामर्थ्ययुक्त होता है,
5. संशय अज्ञान रूप है,
4. निश्चयाभिमुखता होती है 5. ईहा ज्ञान रूप है,
6. ईहा में इन धर्मों का निषेध हो कर परिणाम निश्चयाभिमुखी होता है,
7. ईहा में साधन (हेतु) समर्थन ( उपपत्ति) और अन्वेषण परायण होता है।
अनुमान और ईहा
धवलाटीकार ने ईहा और अनुमान में भेद स्पष्ट किया है। ईहा हेतु से होती है, अनुमान से नहीं। क्योंकि ईहा अवगृहीत अर्थ को विषय करती है, अतः इसका लिंग स्वविषय से भिन्न नहीं होता है। जबकि अनुमान जिसका अवग्रह नहीं हुआ ( अनवगृहीत) ऐसे अर्थ को विषय करता है, अतः इसका लिंग स्वविषय से भिन्न होता है 371
ईहा और ऊह
उमास्वाति ऊह और तर्क को ईहा के पर्यायवाची मानकर इनका सम्बन्ध मतिज्ञान से जोड़ते हैं। इस प्रकार आगमिक परम्परा में तर्क, ऊह और चिंता ईहा के पर्यायवाची हैं 372 अतः तत्त्वार्थभाष्य के काल में ऊहा और तर्क, ईहा के विशेष अर्थ को प्रकट करते हैं। पंडित सुखलालजी के अनुसार आगम, पिटक और दर्शनसूत्रों में विविध प्रसंगों में थोड़े-बहुत भेद के साथ इन दोनों शब्दों का विविध अर्थों में प्रयोग हुआ है। 73
370. मलधारी हेमचन्द्र, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 183-184, पृ. 92
371. धवला पु. 13, सू. 5.5.23 पृ. 217
372. ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासासेत्यनर्थान्तरम् । तत्त्वार्थभाष्य 1.15 पृ. 81, षट्खण्डागम पु. 13 सू. 5.5.38 373. प्रमाणमीमांसा टिप्पण पृ. 76