________________
[174]
विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
तत्त्वार्थभाष्य में अवग्रह, ग्रहण, आलोचन और अवधारण इन चार शब्दों का प्रयोग हुआ है 1354 उमास्वाति ने और तत्त्वार्थ टीकाकारों ने इन शब्दों के अर्थ को स्पष्ट नहीं किया है।
षट्खण्डागम में नंदी गत अंतिम दो भेदों के अलावा ओग्गहे, वोदाणे और साणे ऐसे पांच शब्द मिलते हैं। इनकी परिभाषा नहीं है। इनकी परिभाषा देते हुए धवलाटीका में इन शब्दों को ज्ञान प्रक्रिया में नहीं समझाया है। उनके अनुसार घटादि अर्थों का अवग्रहण अवग्रह है। जो अन्य वस्तु से उस वस्तु को अलग करके विवक्षित अर्थ जानता है, वह अवदान है। अनध्यवसाय का नाश करना सान है। जो स्वयं की उत्पत्ति के लिए इन्द्रियों का अवलम्बन लेता है वह अवलंबना है और जिससे पदार्थ जाना जाता है, वह मेधा है 1355
ईहा का स्वरूप
मतिज्ञान के भेदों में अवग्रह के बाद ईहा का स्थान है । अवग्रह के द्वारा अव्यक्त रूप में जाने हुए पदार्थ की यथार्थ सम्यग् विचारणा करना - 'ईहा' है। जैसे अंधकार में सर्प के सदृश रस्सी का स्पर्श होने पर - 'यह रस्सी होनी चाहिए सर्प नहीं' - ऐसी यथार्थ सम्यग् विचारणा होना ईहा है। आवश्यकनिर्युक्ति और नंदी के टीकाकार निर्णय की भूमिका के रूप में ईहा को स्वीकार करते हैं। स्पष्ट रूप से ईहा की परिभाषा सर्वप्रथम तत्त्वार्थभाष्य में मिलती है ।
I
उमास्वाति के अनुसार- अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये हुए सामान्य विषय को विशेष रूप से निश्चित करने लिए जो विचारणा होती है, वह ईहा है । 356
जिनभद्रगणि के मन्तव्यानुसार - 1. सद्भूत अर्थविषय की ग्रहणाभिमुख और असद्भूत अर्थविशेष की त्यागाभिमुख विचारणा ईहा है। 357
2. सामान्य ग्रहण के अनन्तर सत् अर्थ की मीमांसा करना ईहा है । नैश्चयिक अर्थावग्रह के अनन्तर यह मीमांसा होती है कि यह शब्द है अथवा यह अशब्द ? व्यावहारिक अर्थावग्रह के अनन्तर यह मीमांसा होती है कि यह शब्द शंख का है अथवा श्रृंगी वाद्य का? यह मीमांसा ईहा कहलाती है 358 अकलंक ने राजवार्तिक में उल्लेख किया है कि 'अवगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकांक्षणमीहा' अवगृहीत अर्थ को विशेष जानने की आकांक्षा ईहा है । 359 हेमचन्द्राचार्य ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है 1360
वादिदेवसूरि के अनुसार - "अवगृहीतार्थविशेषाकांक्षणमीहा" अर्थात् अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा ईहा है। 'यह मनुष्य है' ऐसा अवग्रह ज्ञान से जाना गया था। इससे भी अधिक ‘यह दक्षिणी है या पूर्वी' इस प्रकार विशेष को जानने की इच्छा होना ईहा ज्ञान कहलाता है। उसके मस्तक पर तिलक लगाया हुआ है और लंगोट धारण की हुई है यह देखकर ईहा ज्ञान 'यह दक्षिणी होना चाहिए' यहां तक पहुँच पाता है । 361
वीरसेनाचार्य ने धवला में कहा है कि अवग्रह के द्वारा ग्रहण किये पदार्थ में उसके विशेष को जानने की इच्छा होना ईहा है। अथवा संशय के बाद और अवाय के पहले बीच की अवस्था में विद्यमान तथा हेतु के अवलम्बन से उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्यय को ईहा कहते हैं 2
354. अवग्रहो ग्रहो ग्रहणमालोचनमवधारणमित्यनर्थान्तरम् । तत्त्वार्थभाष्य 1.15
355. ओग्गहे वोदाणे साणे अवलंबणा मेहा। धवला पु. 13, सू. 5.5.37, पृ. 242
356. अवगृहीतम्। विषयार्थैकदेशाच्छेषानुगमनं निश्चयविशेषजिज्ञासा चेष्टा ईहा । तत्वार्थभाष्य 1.15 पृ. 81
357. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 184
358. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 289 360. प्रमाणमीमांसा 1.1.27
359. राजावार्तिक 1.15.2
361. प्रमाणनयतत्त्वालोक, सूत्र 2.8
362. धवला पु. 13, सू. 5.5.23 पृ. 217