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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
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1. अवग्रहणता व्यञ्जन अवग्रह के पहले समय में आये हुए शब्दादि पुद्गलों का उपकरण द्रव्यइंद्रिय के द्वारा ग्रहण करना अथवा व्यंजनावग्रह के पहले समय में अव्यक्त झलक का ग्रहण होना अवग्रह की पहली अवस्था 'अवग्रहणता' है। इसमें ग्रहण किये गये अर्थ का ज्ञान काल सापेक्ष है। क्योंकि एक साथ सम्पूर्ण अर्थ का ग्रहण नहीं होता है, अनुक्रम से होता है।
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2. उपधारणता व्यञ्जन अवग्रह के दूसरे तीसरे आदि समयों से लेकर असंख्यात समय तक आते हुए नये-नये शब्दादि पुद्गलों का उपकरण द्रव्येन्द्रिय द्वारा ग्रहण करना अथवा अव्यक्त से व्यक्ताभिमुख हो जाने वाले अवग्रह को अवग्रह की दूसरी अवस्था 'उपधारणता' कहते हैं।
3. श्रवणता अवग्रह की इस तीसरी अवस्था में एक समय की अवधि वाले सामान्य अर्थ का अवग्रहण होना 'श्रवणता' है अथवा जो अवग्रह श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा हो, उसे श्रवणता कहते हैं, एक समय में होने वाले सामान्यार्थावग्रह बोधरूप परिणाम को श्रवणता कहते हैं, इसका का सीधा सम्बन्ध श्रोत्रेन्द्रिय से है ।
4. अवलम्बनता
अवग्रह की चौथी अवस्था में नई दूसरी ईहा के लिए प्रथम अवाय का अवलम्बन रूप होना 'अवलम्बनता' है अर्थात् विशेष सामान्य अर्थ का अवग्रह होता है। जैसे यह शब्द है, ऐसा किसी ने निर्णय कर लिया अर्थात् अपाय हो गया है फिर पुनः किसका शब्द है। ऐसा होने पर वही शब्द अवग्रह बन गया अर्थात् प्रथम अवाय का आलम्बन लेकर पुनः ईहन किया। इसलिए इसे आलम्बनता कह दिया है। ऐसा अवग्रह सांव्यवहारिक अवग्रह कहलाता है। जबतक अन्तिम अपाय नहीं हो जाता है तब तक अपाय अवान्तर सामान्य होने से अवग्रह बनता जायेगा ।
5. मेधा मेधा शब्द का प्रयोग जैन आगमों में बुद्धि परक अर्थ में मिलता है। जबकि नंदी और षट्खण्डागम में इसका उल्लेख अवग्रह की पर्याय के रूप में किया है। दूसरे तीसरे आदि अवायों में पहले अवाय से अधिक बुद्धि का होना 'मेधा' है । यह अवग्रह की पांचवी अवस्था है इस अवस्था में उत्तरोत्तर धर्म की जिज्ञासा के काल में विशेष सामान्य अर्थ का अवग्रहण होता है। इस प्रकार नंदी टीका में इसका अर्थ प्रथम विशेष सामान्य अर्थावग्रह के बाद प्राप्त 'विशेष सामान्य अर्थावग्रह किया है। जबकि धवलाटीका में इसका अर्थ अर्थज्ञान के हेतु के रूप में किया है। इन पांच भेदों में से पहले दो भेद व्यंजनावग्रह से सम्बन्धित हैं, तीसरा केवल श्रोत्रेन्द्रिय के अवग्रह से सम्बन्धित है अर्थात् अर्थावग्रह है तथा चौथा और पांचवा भेद सांव्यवहारिक अर्थावग्रह रूप है, जो नियम से ईहा, अवाय और धारणा तक पहुँचने वाले हैं। कुछ ज्ञानधारा सिर्फ अवग्रह तक ही रह जाती है और कुछ आगे बढ़ने वाली होती है। इन पांच नामों में से आलम्बता तो नाम भेद की अपेक्षा से और शेष चार काल भेद की अपेक्षा से है 351 इस प्रकार नंदी टीकाकारों ने अवग्रह की क्रमिक ज्ञान प्रक्रिया का उल्लेख किया है 1352
प्रश्न क्या ये पाँचों नाम एकार्थक हैं?
उत्तर- यह कथन सामान्य अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सभी विकल्पों में अवग्रह के
स्वरूप का ही निर्देश किया गया है, इसलिए इन्हे एकार्थक कहा गया है। 353
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348. नंदीचूर्णि पृ. 58, हारिभद्रीय पृ. 59
350. आत्मारामजी, नंदीसूत्र पृ. 225
351. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 184
352. नंदीचूर्णि पृ. 58, हारिभद्रीय पृ. 58, मलयगिरि 174-175
349. धवला पु, 13, पृ. 242
353.नंदचूर्ण, पृ. 58