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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
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समीक्षा - इस प्रकार जिनभद्रगणि का मत अधिक पुष्ट प्रतीत होता है, क्योंकि जो सैद्धान्तिक बाधा पूज्यपाद के मत को स्वीकार करने पर प्राप्त होती है, जिनभद्रगणि के मत में उसका अवकाश नहीं रहता है। अत: व्यंजनावग्रह और दर्शन एक ही रूप मान सकते हैं। व्यंजनावग्रह का विषय एवं भेद
इन्द्रिय के विषय और इन्द्रिय का जो परस्पर सम्पर्क (सम्बन्ध) होता है, वह व्यंजनावग्रह का विषय है। यह विषय श्रोत्र आदि जो चार इन्द्रिया प्राप्यकारी हैं, उनके साथ ही घटित होता है, चक्षु
और मन के साथ नहीं, क्योंकि यह दोनों अप्राप्यकारी हैं। इसका विस्तार से वर्णन द्वितीय अध्याय में कर दिया गया है। क्योंकि भाव चक्षुइन्द्रिय और भाव मन, रूप आदि को उनके चक्षु उपकरण रूप द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन के साथ सम्बन्ध हुए बिना ही जानते हैं, अतएव चक्षु इन्द्रिय का और मन का व्यंजनावग्रह नहीं होता है। इसलिए व्यंजनावग्रह के चार भेद होते हैं, यथा 1. श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, 2. घ्राणेन्द्रिय व्यंजनावग्रह, 3. जिह्वेन्द्रिय व्यंजनावग्रह तथा 4. स्पर्शनेन्द्रिय व्यंजनावग्रह अर्थात् 1. श्रोत्र 2. घ्राण 3. जिह्वा और 4. स्पर्शन, ये चार भाव इन्द्रियाँ ही शब्दादि पदार्थों को श्रोत्र आदि उपकरण द्रव्य इन्द्रिय के साथ सम्बन्ध होने पर जानती हैं। अतएव इन चार इन्द्रियों का ही व्यंजनावग्रह कहा है। अर्थावग्रह का स्वरूप
अर्थावग्रह के स्वरूप का निर्देश करते हुए जिनभद्र विशेषावश्यकभाष्य में कहते हैं -व्यंजनावग्रह के चरम समय में अर्थावग्रह होता है और वह अर्थावग्रह सामान्य, अनिर्देश्य एवं स्वरूप नाम आदि की कल्पना से रहित होता है। आवश्यकनियुक्ति में अर्थावग्रह की स्पष्ट परिभाषा प्राप्त नहीं होती है 60
नंदीसूत्र के अनुसार - श्रोत्र आदि उपकरण द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से श्रोत्र आदि भावेन्द्रियों के द्वारा शब्दादि रूपी पदार्थों को अव्यक्त रूप में जानना 'अर्थावग्रह' है।
जिनभद्रगणि के अनुसार - जब व्यंजनावग्रह में श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ शब्द आदि द्रव्यों से आपूरित होती हैं, तब द्रव्य और इन्द्रिय का परस्पर संसर्ग होता है, उस संसर्ग के पश्चात् सामान्य, अनिर्देश्य (अनभिलाप्य) तथा स्वरूप, नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित अर्थ का ग्रहण होना अर्थावग्रह है।62 इस पदार्थ का नाम क्या है, इस पदार्थ की जाति क्या है, इस पदार्थ का गुण क्या है, इत्यादि ज्ञान जिसमें व्यक्त न हो, ऐसी मन्दतम ज्ञान मात्रा को 'अव्यक्त ज्ञान' कहते हैं। अर्थावग्रह में मात्र ऐसा अव्यक्त ज्ञान ही होता है,263 क्योंकि अर्थावग्रह का काल एक समय ही है और एक समय में नाम, जाति, गुण, क्रिया आदि का व्यक्त ज्ञान छद्मस्थों को संभव नहीं हो सकता। अव्यक्त के तीन अर्थ होते हैं, अनिर्देश्य, सामान्य, विकल्प से रहित 64 मलधारी हेमचन्द्र टीका में भी यही अर्थ किये गए हैं265 ऐसे ही भेद नंदीचूर्णि में भी प्राप्त होते हैं 66 हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजय आदि ने इसका समर्थन किया है ।267 259. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 183, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 204 260. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 3, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 178, नंदीसूत्र, पृ. 136 261. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 183 262. दव्वं माणं पूरियमिंदियमापूरियं तहा दोण्हं। अवरोप्परसंसग्गो जया तया गिण्हइ तमत्थं।
सामन्नमणिद्देसं सरूप-नामाइकप्पणारहियं। जइ एवं जं तेणं गहिए सद्दे त्ति तं किह णु।-विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 251-252 263. सामान्यमनिर्देश्य स्वरूप-नाम-जाति-द्रव्य-गुण-क्रियाविकल्पविमुखमनाख्येयमित्यर्थः।
-विशेषावश्यकभाष्य स्वोपज्ञ गाथा 251, भाष्य गाथा 252 264. अव्वत्तमणिद्देसं, सामण्णं कप्पणारहियं। -विशेषावश्यकभाष्य गाथा 262 265. स्वरूप-नामादिकल्पनारहितम्, आदि शब्दाज्जाति-क्रिया-गुण-द्रव्यपरिग्रहः। - विशेषावश्यकभाष्य गाथा 252 की टीका 266, जता अव्वत्तमणिद्देसं सामण्णं विकप्परहियं ति भण्णति। - नंदीचूर्णि पृ. 63 267. हारिभद्रीय पृ. 66, मलयगिरि पृ. 168, जैनतर्कभाषा पृ. 12