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________________ [158] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन पूज्यपाद आदि आचार्यों के अनुसार जो सामान्य से ग्रहण करे वह अर्थावग्रह है। धवलाटीका के अनुसार अप्राप्त अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह है।69 यशोविजयजी के कथनानुसार - 1. 'अव्वत्तं सदं सुणेइ' अर्थात् कोई अव्यक्त शब्द सुनता है, यह अर्थावग्रह है। यहाँ अव्यक्त कहने का तात्पर्य यह है कि अर्थावग्रह में ज्ञेय पदार्थ का निश्चय नहीं होता है | 2. "स्वरूपजातिक्रियागुणद्रव्यकल्पनारहितं सामान्यग्रहणम् अर्थावग्रहः''271 अर्थात् स्वरूप, नाम, जाति, क्रिया, गुण और द्रव्य की कल्पना (शब्दोल्लेखयोग्य प्रतीति) से रहित सामान्य की उपलब्धि अर्थावग्रह है। अर्थावग्रह में प्रयुक्त 'अर्थ' शब्द का अर्थ दो प्रकार से किया गया है - 1. पूज्यपाद के अनुसार 'इयर्ति पर्यायांस्तैर्वार्यत इत्यर्थो द्रव्यम्' अर्थात् जो पर्यायों को प्राप्त होता है या पर्यायों के द्वारा जो प्राप्त किया जाता है, वे अर्थ है। इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ शब्द 'ऋगतौ' धातु से बना है। इसका समर्थन हरिभद्र और अकलंक ने भी किया है।73 अतः अर्थ ऐसी द्रव्यपर्यात्मक वस्तु है-74 जिसके रूप275 आदि चक्षुरादि इन्द्रिय के विषय बनते हैं। इससे नैयायिक आदि का मानना है कि रूपादि गुणों का ही इंद्रियों से सन्निकर्ष होता है, रूपादि गुणों से युक्त पदार्थों से नहीं। उक्त अर्थ से इसका खण्डन हो जाता है। अतः चक्षु आदि इन्द्रियां रूप आदि गुणों से युक्त पदार्थों को ग्रहण करती हैं, रूपादि गुणों को नहीं। __ 2 मलयगिरि के अनुसार 'अर्थ्यते इत्यर्थः' के अनुसार 'अर्थ उपयाञ्चायाम्' धातु से बना है।76 जिसका तात्पर्य है कि जिसकी याचना की जाती है अथवा जिसको चाहा जाता है, वह अर्थ है। यह अर्थ भी पदार्थ का ही वाचक है। अर्थावग्रह के भेद अवग्रह के तत्त्वार्थसूत्र में बहु-अबहु, बहुविध-अबहुविध, क्षिप्र-अक्षिप्र, अनिश्रित-निश्रित, निश्चित-अनिश्चित, ध्रुव-अध्रुव इन बारह भेद किए गए हैं, किन्तु इन भेदों की एक समय की स्थिति वाले अवग्रह के साथ संगति नहीं बैठती है। इसलिए जिनभद्रगणि ने अवग्रह के दो भेद किए हैं - नैश्चयिक और सांव्यवहारिक। अव्यक्त सामान्य मात्र ग्रहण करने वाला अवग्रह नैश्चयिक अवग्रह है। इसका कालमान एक समय है। अपाय के पश्चात् उत्तरोत्तर पर्याय का ज्ञान करने के लिए जो अवग्रह होता है, वह सांव्यवहारिक अवग्रह है। दूसरा सांव्यवहारिक अवग्रह विशेषग्राही है, क्योंकि यदि 'शब्द' ऐसा जो श्रुत में कहा गया है, उसे यदि विकल्प (विवक्षा) की अपेक्षा से विशेष विज्ञान के रूप में ग्रहण किया जाय, तो वह सारा कथन सांव्यवहारिक अर्थावग्रह को स्वीकार करने पर सही होगा। साथ ही क्षिप्रादि को भेदों सांव्यवहारिक अवग्रह के भेद स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि असंख्यात समय में इनके निष्पन्न होने से इसमें क्षिप्र या चिर ग्रहण का होना संगत हो सकता है और विशेष ग्राहक होने से बहु-बहुविध आदि के ग्रहण की भी संगति होगी, इसलिए सांव्यवहारिक 268. सवार्थसिद्धि 1.17, हारिभद्रीय पृ. 57, मलयगिरि पृ. 185 269. अप्राप्तार्थग्रहणमर्थावग्रहः। - धवला पु. 13, सू. 5.5.24, पृ. 220 270. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम् पृ. 10 271. जैनतर्कभाषा, पृ. 12 272. सर्वार्थसिद्धि सू. 1.17 273. राजवार्तिक 1.17.1, हारिभद्रीय पृ. 69 274. सर्वार्थसिद्धि स. 1.17. राजवार्तिक 1.17.1, प्रमाणमीमांसा 1.1.26 275. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 179, धवला पु. 13, सू. 5.5.23, पृ. 216 276. मलयगिरि पृ. 168
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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