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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
2. जिनभद्रगणि आदि आचार्य द्रव्य और इन्द्रिय के संयोग को व्यंजनावग्रह मानते हैं 246 अर्थात् शब्द द्रव्य और कर्णेन्द्रिय के संयोग को व्यंजनावग्रह कहते हैं । विषय (द्रव्य) और इन्द्रिय का संयोग ही व्यंजनावग्रह है अतः व्यंजनावग्रह के पहले दर्शन का अवकाश नहीं रहता है। इस प्रकार उपर्युक्त दोनों मान्यताओं में आंशिक अन्तर है।
पूज्यपाद के अनुसार विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है, उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है। इसी प्रकार अकलंक, हेमचन्द्र आदि आचार्यों ने एक ओर तो अवग्रह के पहले दर्शन होना स्वीकार किया है तथा 248 उसके बाद व्यंजनावग्रह को अव्यक्त रूप में स्वीकार किया है । 249 जबकि दूसरी ओर वे चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार प्राप्यकारी इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होना स्वीकार करते हैं।250 इस प्रकार इन दोनों कथनों में विसंगति है। क्योंकि दर्शन के बाद तथा अर्थावग्रह से पहले व्यंजनावग्रह होता है । लेकिन व्यंजनावग्रह होने से पहले ही अर्थात् दर्शन के समय ही विषय और इन्द्रिय का संयोग हो चुका है। इसलिए व्यंजनावग्रह के समय विषय और इन्द्रिय का संयोग नहीं होता है, ऐसा स्वीकार करना ही पडेगा। इस व्यवस्था के अनुसार मन सहित छहों इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होना संभव है, क्योंकि छहों इन्द्रियों के अर्थावग्रह से पहले दर्शन का होना स्वीकृत है तथा दर्शन और अर्थावग्रह के बीच में व्यंजनावग्रह होता है। व्यंजनावग्रह में विषय और इन्द्रिय संयोग नहीं होने से इन्द्रियों का प्राप्य - अप्राप्यकारित्व के साथ संबन्ध नहीं रहता है। अतः व्यंजनावग्रह के चार भेदों की संगति के लिए जो प्राप्यकारी का तर्क दिया है, वह संगत नहीं रहता है pht
जिनभद्रगणि और यशोविजय ने दर्शन, आलोचना और अवग्रह को अभिन्न स्वीकार करके इस विसंगति को दूर किया है तथा अवग्रह को अनाकार रूप माना है और अवग्रह के पूर्व अलोचन को स्वीकार नहीं किया गया है। 255 अतः इसके सारांश में हम कह सकते हैं कि इनके मतानुसार दर्शन और अवग्रह एकरूप हैं। मलधारी हेमचन्द्रसूरि बृहद्वृत्ति में आलोचन को अर्थावग्रह रूप मानते हैं, लेकिन दर्शन के बाद अवग्रह को भी स्वीकार करते हैं । 256
धवलाटीका में एक ओर तो अर्थग्रहण को व्यंजनावग्रह मानकर जिनभद्रगणि का समर्थन किया गया है तथा दूसरी ओर अवग्रह से पहले दर्शन स्वीकार करके पूज्यपाद का भी समर्थन किया गया है 258 अतः इस प्रकार वीरसेन स्वामी ने दोनों मतों का समर्थन किया है।
246. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 194, नंदीचूर्णि पृ. 57, हारिभद्रीय पृ. 57, मलयगिरि पृ. 169, जैनतर्कभाषा पृ. 7
247. विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति । तदनन्तरमर्थग्रहणमवग्रहः । सर्वार्थसिद्धि 1.15 पृ. 79
248. राजवार्तिक 1.15.1, धवला पु. 13, सू. 5.5.23 पृ. 216, प्रमाणमीमांसा 1.1.26
249. सर्वार्थसिद्धि 1.18 पृ. 83, राजवार्तिक 1.18.1
250. सर्वार्थसिद्धि 1.19, राजवार्तिक 1.19.1, धवला पु. 13, सू. 5.5.26 पृ. 225
251. तत्त्वार्थसूत्र 1.19, सर्वार्थसिद्धि 1.19, राजवार्तिक 1.19.1, धवला पु. 13, सू. 5.5.26 पृ. 225
252. सर्वार्थसिद्धि 1.18-19, राजवार्तिक 1.19.1, धवला पु. 13, सू. 5.5.26 पृ. 225
253. ‘अवग्रहस्यानाकारोपयोगान्तर्भावात् ... ' विशेषावश्यकभाष्य गाथा 262 की टीका
254. 'अर्थावग्रहेऽव्यक्तशब्दश्रवणस्यैव सूत्रे निर्देशात्, अव्यक्तस्य च सामान्यरूपत्वादनाकारोपयोगरूपस्य चास्य तन्मात्रविषयात्वात् । '
• जैनतर्कभाषा पृ. 13
255. विशेषावश्यकभाष्य 273-279, जैनतर्कभाषा 14-15
256 तस्मादर्थावग्रह एव सामान्यार्थग्राहकः, न पुनरेतस्मादपरमालोचनाज्ञानम् (गाथा 277 की टोका) अर्थानां रूपादीनां प्रथमं दर्शनानन्तरमेवाऽवग्रहणमवग्रहं ब्रुवत इति सम्बन्ध । मलधारी हेमचन्द्र गाथा 179 की टीका
257. धवला पु. 13, सू. 5.5.24, पृ. 220
258. धवला पु. 13, सूत्र 5.5.23 पृ. 216