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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[155] भर जाता है, वैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय जब व्यंजन से पूर्ण हो जाती है।' ऐसा कहा है तो यहाँ 'व्यंजन' का अर्थ द्रव्य या इन्द्रिय या इन्द्रिय व द्रव्य का संयोग है, न कि व्यंजनावग्रह 38 उसी का अनुकरण करके मलधारी हेमचन्द्र ने भी व्यंजन के तीन अर्थ किये हैं - 1. उपकरण इन्द्रिय और शब्दादि परिणत द्रव्य इन दोनों का परस्पर जो सम्बन्ध है, वह उपकरणेन्द्रिय-शब्दादिपरिणतद्रव्य सम्बन्ध है, वह व्यंजन कहलाता है। 2. इंद्रियों के द्वारा अर्थ अभिव्यक्त होता है, इसलिए वह भी व्यंजन है और 3. जो व्यक्त किया जाता है, उसे भी व्यंजन कहते हैं अर्थात् इंद्रिय-विषय सम्बन्ध, इन्द्रियां, शब्दादिविषय इन तीनों को व्यंजन कहा जाता है 239 व्यंजन के तीन अर्थों का अन्य आचार्यों के द्वारा समर्थन
1. द्रव्य - तत्त्वार्थसूत्र में 'व्यंजनस्य अवग्रहः' शब्द व्यंजन का द्रव्यपरक अर्थ प्रकट करता है। इसका समर्थन पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यों ने किया है। यशोविजयजी के अनुसार शब्द आदि के रूप में परिणत पुद्गल द्रव्यों का समूह भी व्यंजन कहलाता है। यह प्रथम अर्थ तब घटित होता है, जब पुद्गल द्रव्य प्रमाणोपेत होकर अपने विषय के प्रतिबोध में समर्थ बन जाते हैं।40
2. इन्द्रिय - नंदीसूत्र में जो मल्लक दृष्टान्त में प्रयुक्त वंजणं पूरितं होति शब्द व्यंजन का इन्द्रियपरक अर्थ प्रकट करता है, नंदी टीकाकारों ने भी ऐसा उल्लेख किया है। यशोविजयजी के अनुसार कदम्ब के फूल तथा गोलक आदि आभ्यन्तर निर्वृत्ति रूप इन्द्रियों के शब्द आदि विषयों को ग्रहण करने की कारण भूत शक्ति, जिसे उपकरणेन्द्रिय कहते हैं, 'व्यंजन' कहलाती है। यह दूसरा अर्थ घटित होता है, जब पुद्गलों से द्रव्येन्द्रिय परिपूर्ण हो जाता है।241
3. द्रव्य और इन्द्रिय सम्बन्ध - विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि कहते हैं कि जैसे दीपक से घट अभिव्यक्त होता है, वैसे ही जिससे अर्थ अभिव्यक्त होता है, वह व्यंजन है 42 यशोविजयजी के अनुसार उपकरणेन्द्रिय और विषय का संबंध भी व्यंजन कहलाता है। अतएव व्यंजन (उपकरणेन्द्रिय) के द्वारा व्यंजन (विषय) का ग्रहण होना व्यंजनावग्रह है। व्यंजनावग्रह में मध्यमपदलोपी समास है, अर्थात् 'व्यंजन-व्यंजनावग्रह' में से बीच के 'व्यंजन' पद का लोप हो गया है 43 इस तीसरी अवस्था में जब पुद्गल द्रव्येन्द्रिय के अंगभूत बन जाते हैं और पुद्गल द्रव्येन्द्रिय से तादात्म स्थापित कर लेते हैं अर्थात् पुद्गल इन्द्रिय को पूर्ण कर देते हैं, इन्द्रिय अपने विषय के प्रतिबोध के लिए उन पुद्गलों को ग्रहण कर लेती है। इससे पुद्गल और इन्द्रिय दोनों के सहयोग से ज्ञान होता है। जिनदासगणि, हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजयजी ने तीनों ही अर्थों का समर्थन किया है 44 व्यंजनावग्रह के सम्बन्ध में दो मान्यताएं
1. पूज्यपाद आदि आचार्य अव्यक्त शब्दादि के ग्रहण को व्यंजनावग्रह मानते हैं 45 क्योंकि दर्शन के बाद शब्द का अव्यक्त ग्रहण है। 238. तोएण मल्लगं पिव वंजणमापूरियं ति जं भणियं । तं दव्वमिंदियं वा तस्संजोगो व न विरुद्धं । -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 250 239. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 194 तथा 250 की टीका, पृ. 98, 126 240. तत्त्वार्थसूत्र 1.18, सर्वार्थसिद्धि 1.18, राजवार्तिक 1.18, जैनतर्कभाषा, पृष्ठ 7 241. नंदीचूर्णि पृ. 63, हारिभद्रीय पृ. 66, मलयगिरि पृ. 180, जैनतर्कभाषा, पृष्ठ 7 242. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 194 243. मलधारी हेमचन्द्र गाथा 194 की टीका, जैनतर्कभाषा, पृष्ठ 7 244. नंदीचूर्णि पृ. 56, 63, हारिभद्रीय पृ. 56, 66, मलयगिरि 168, 180, जैनतर्कभाषा पृ. 7 245. 'व्यंजनमव्यक्तं शब्दादिजातं तस्यावग्रहो भवति' सर्वार्थसिद्धि 1.18, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.18