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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
मलधारी हेमचन्द्र कहते हैं कि इन्द्रिय रूप व्यंजन से शब्दादिपरिणत द्रव्य के साथ व्यंजन रूप सम्बन्ध का अवग्रहण व्यंजनावग्रह है 234
मलयगिरि ने नंदीवृत्ति में उल्लेख किया है कि उपकरण इन्द्रिय और शब्दादि रूप में परिणत द्रव्य का संबंध होने पर प्रथम समय से लेकर अर्थावग्रह से पूर्व का जो अव्यक्त ज्ञान है, वह व्यंजनावग्रह है। यह अव्यक्त ज्ञान सुप्त मत्त मूर्च्छित पुरुष के ज्ञान जैसा होता है 25
धवलाटीका के अनुसार अप्राप्त अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह है Pa
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दृष्टांत द्वारा व्यंजनावग्रह का स्वरूप
मल्लक का दृष्टांत नंदीसूत्र में व्यंजनावग्रह को मल्लक के दृष्टांत से समझाया गया है। एक पुरुष के पास एक मल्लक (सकोरा ) था, जो तत्काल पका हुआ होने के कारण वह अत्यन्त उष्ण और रुक्ष था । पुरुष ने उसमें जल की एक बून्द डाली, पर वह शकोरे की उष्णता और रुक्षता से शोषित हो गयी। इस प्रकार जल की बून्हें डालते हुए सकोरे की उष्णता और रुक्षता पूरी नष्ट हो जाने पर एक ऐसी जल-बून्द होगी, जो सकोरे में शोषित नहीं होगी और वह सकोरे को कुछ गीला कर देगी। उसके पश्चात् भी एक-एक जल- बून्द डालते रहने पर कई जल- बून्दों से सकोरा पूरा गीला हो जाएगा। उसके बाद एक ऐसी बून्द होगी- जो सकोरे के तल पर अस्तित्व धारण किये हुए ठहरेगी। उसके पश्चात् एक-एक जल- बून्द डालते रहने पर कई जल-बृन्दों से सकोरा भर जाएगा और उसके बाद की बून्दें सकोरे से बाहर निकलने लगेगी।
इसी प्रकार जो पूर्वोक्त सोए हुए पुरुष को जगाने वाला पुरुष, जब अनेक शब्द करता है और वे शब्द उस सुप्त पुरुष के कानों में प्रविष्ट होते होते, जब योग्य शब्द पुद्गलों के द्वारा श्रोत्रेन्द्रिय का व्यंजनावग्रह पूरा हो जाता है, तब उससे अगले समय में उस सोये हुए पुरुष को एक समय का अर्थावग्रह होता है, जिसमें वह शब्द को अत्यंत अव्यक्त रूप में जानता है उससे अगले असंख्य समय में उसे व्यावहारिक अर्थावग्रह होता है, उससे वह 'कोई शब्द करता है' इस अव्यक्त रूप में शब्द को जानकर ‘हुँकार' करता है । परन्तु वह स्पष्ट व्यक्त रूप में नहीं जानता कि 'यह शब्द कौन कर रहा है ?' उस व्यावहारिक अर्थावग्रह के अनन्तर वह पुरुष ईहा आदि में प्रवेश करता है ।
'शकोरे' के समान 'श्रोत्रेन्द्रिय' है और 'जल' के समान 'शब्द' है। जैसे शकोरा एक जल - बून्द से भर नहीं पाता, उसके भरने में सैकड़ों जल - बून्दें चाहिए, वैसे ही श्रोत्रेन्द्रिय शकोरे के समान होने से उसका व्यंजनावग्रह एक समय प्रविष्ट शब्द पुद्गलों से पूरा नहीं हो जाता। उसे पूरा होने में असंख्य समय चाहिए।
जिनभद्रगणि ने उपर्युक्त दृष्टांत का विशेष उल्लेख नहीं किया है, लेकिन मलधारी हेमचन्द्र ने बृहद्वृत्ति237 में व्यंजनावग्रह के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए इसी दृष्टांत का उल्लेख नंदी की टीका के अनुसार ही किया है।
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार व्यंजन के अर्थ
जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त किया जाय वह 'व्यंजन' कहलाता है। जिनभद्रगणि ने व्यंजन के तीन अर्थ किये हैं, वे कहते हैं कि नंदीसूत्र में जल का सिकोरा (मल्लक) जल बिन्दु से पूरित होते हुए
235. मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 169
234. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 194 की टीका, पृ. 98
236. प्राप्तार्थग्रहणं व्यंजनावग्रहः । धवला पु. 13, सू. 5.5.24, पृ. 220 237. विशेषावश्यकभाष्य की गाथा 249 की बृहद्वृत्ति