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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
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विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अवग्रहादि के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं - 'अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं तह वियालणं ईहं । ववसायं च अवायं धरणं पुण धारणं बेंति ।' अर्थात् पदार्थ के ग्रहण को 'अवग्रह' कहते हैं, पदार्थ की विचारणा को 'ईहा' कहते हैं, पदार्थ के व्यवसाय को 'अवाय' कहते हैं और पदार्थ के निर्णय ज्ञान के धारण करने को 'धारणा' कहते हैं। आगे की गाथा में इनका स्वरूप और स्पष्ट किया गया है सामान्य अर्थ अवग्रहण (सामान्य अवग्रहण) है, अवग्रह के भेदों (विशेषों) की मार्गणा (अन्वेषणा) ईहा है, उसी ईहित पदार्थ का निश्चयात्मक अवगम अपाय है, और उसी निर्णयात्मक ज्ञान की अविच्छिन्न रूप से स्थिति धारणा कही जाती है। 216 इनका से विस्तार वर्णन भाष्यकार के आधार पर क्रमशः करेंगे।
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जिनदासगणि महत्तर ने नन्दीचूर्णि में इनका स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है। रूपादि विशेष से निरपेक्ष अनिर्देश्य सामान्य का ग्रहण अवग्रह है । अवगृहीत अर्थ का विशेष विचार या अन्वेषण ईहा है। उस (ईहित) विशेषण विशिष्ट अर्थ का निर्णय होना अवाय है उस विशेष रूप से ज्ञात अर्थ को धारण करना उसकी अविच्युति होना धारणा कहा जाता है
पूज्यपाद, अकलंक आदि दिगम्बर दार्शनिक भी अवग्रह को छोडकर ईहा आदि का इसी प्रकार से विवेचन करते हैं । वे अवग्रह के पहले 'दर्शन' का होना मानते हैं। उनके मत में विषय और विषयी (इन्द्रिय) का सन्निपात (सन्निकर्ष) होने पर दर्शन होता है, उसके पश्चात् अर्थ का ग्रहण अवग्रह कहलाता है । अवगृहीत अर्थ में उससे विशेष जानने की आकांक्षा ईहा है। विशेष को जान लेने पर यथास्वरूप का ज्ञान अवाय कहलाता है तथा अवाय द्वारा जाने गए अर्थ को कालान्तर में भी न भूलना धारणा है
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अवायज्ञान और धारणाज्ञान में इस प्रकार निश्चयात्मकता निर्विवाद है, किन्तु अवग्रह एवं ईहा ज्ञान की निश्चयात्मकता विवाद का विषय है। श्वेताम्बर आगम-परम्परा के अनुयायी जिनभद्रगणि आदि दार्शनिक अवग्रह और ईहाज्ञान में निश्चयात्मकता अंगीकार नहीं करते हैं, किन्तु प्रमाणशास्त्र के अनुयायी अकलंक आदि दिगम्बर दार्शनिक तथा वादिदेवसूरि आदि कुछ श्वेताम्बर दार्शनिक अवग्रह और ईहा ज्ञान को प्रमाण बतलाने के लिए उनमें निश्चयात्मकता स्वीकार करते हैं । अवग्रह का स्वरूप
मतिज्ञान के चार भेदों में से प्रथम भेद अवग्रह का स्वरूप निम्न प्रकार से है -
उमास्वाति ने उल्लेख किया है कि इन्द्रियों से विषय का अव्यक्त आलोचन अवग्रह है P10 पूज्यपाद के मतानुसार पदार्थ और उसे विषय करने वाली इन्द्रियों का योग्य देश में संयोग होने के अनन्तर पदार्थ का सामान्य प्रतिभासरूप 'दर्शन' होता है, उसके अनन्तर वस्तु का जो प्रथम बोध होता है उसे अवग्रह कहते हैं । 220
जिनभद्रगणि के अनुसार - 'अत्थाणं उग्गहणं अवग्गहं' अर्थात् पदार्थों का अवग्रहण अवग्रह है।221
216. विशेशावश्यकभाष्य, गाथा 179-180
217. नन्दिसूत्र (चूर्ण), पृ. 34
218. भट्टाकलंकदेव तत्त्वार्थवालिक अ 1. सू. 15
219. तत्राव्यक्तं यथास्वमिन्द्रियैर्विषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः । - तत्त्वार्थभाष्य 1.15
220. विषय-विषयिसंनिपातसमनन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रह विषयविषयिसंनिपाते सति दर्शनं भवति । तदनन्तरमर्थग्रहणमवग्रह ।
सर्वार्थसिद्धि, अ. 1 सू. 15 पृ. 111
221. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 179