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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के भेद
आवश्यकनिर्युक्ति, तत्त्वार्थ और षट्खण्डागम में मतिज्ञान के सामान्यतः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चार भेदों का उल्लेख है। जबकि नंदी में इन चार भेदों और इनके प्रभेदों का श्रुतनिश्रित भेदों के रूप में उल्लेख है । अवग्रहादि का सर्वप्रथम उल्लेख नियुक्ति में प्राप्त होता है। इसके बाद तत्त्वार्थसूत्र में इनका उल्लेख प्राप्त होता है 212
प्रश्न - नंदीसूत्र में तो अवग्रहादि चार भेद श्रुतनिश्रित के ही बताये हैं, लेकिन स्थानांगसूत्र 213 के अनुसार श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दोनों के अवग्रहादि भेद किये हैं।
उत्तर - यद्यपि मतिज्ञान सम्बन्धी प्रत्येक निर्णय अवग्रहादि से ही होता है, तथापि नन्दीसूत्र से श्रुतनिश्रित के ही अवग्रहादि भेद किये हैं । इसका कारण इन्द्रिय और मन से ग्रहण होने वाले विषयों को श्रुतरूप मानकर उनके विषयों को ग्रहण करने का जो व्यवस्थित क्रम है, उसी को व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अपाय और धारणा के रूप में समझाया गया है। इस ज्ञान में पूर्व संस्कारों का सहयोग रहता है। अश्रुतनिश्रित और चारों बुद्धियाँ विषय ग्रहण के साथ अधिक सम्बन्ध नहीं रखकर, वस्तुस्थिति का गहराई से अनुभव, कार्यपटुता आदि के साथ सम्बन्ध रखती हैं। अतः उनमें अवग्रहादि श्रुतनिश्रित के समान स्पष्ट परिलक्षित नहीं होते हैं। अत: नंदीसूत्र में अवग्रहादि भेद अश्रुतनिश्रित के नहीं किये गये हैं। स्थानांगसूत्र में अश्रुतनिश्रित भी मतिज्ञान का भेद होने से तथा इन्द्रिय और मन से ही अपने विषय को ग्रहण करने वाला होने से इसमें भी अवग्रहादि भेदों का क्रम तो घटित होता ही है, अतः स्थानांगसूत्र में अश्रुतनिश्रित के भी अवग्रहादि भेद बताये गए हैं अर्थात् नंदीसूत्र में अश्रुतनिश्रित के अवग्रहादि भेदों की मुख्यता नहीं होने से उपेक्षित कर दिया गया है तथा स्थानांगसूत्र में गौण रूप से होने पर भी उनका अस्तित्व तो है ही, इसलिए बताये गए हैं। "उग्गह ईहाऽवाओ य, धारणा एव हुंति चत्तारि । आभिणिबोहियनाणस्स, भेयवत्थु समासेणं ।" इस गाथा में संक्षेप में मतिज्ञान के अवग्रहादि चार भेद किये गये हैं । इस प्रकार श्रुत - अश्रुत सभी प्रकार के मतिज्ञान के अवग्रहादि चारों भेद स्वीकार किए गये हैं ।
स्थानांगवृत्ति-14 में अश्रुतनिश्रित मति के दो प्रकार बताये हैं- 1. श्रोत्रेन्द्रियादि से उत्पन्न मति 2. औत्पातिकी आदि चार बुद्धियाँ | श्रोत्रेन्द्रियादि से उत्पन्न अश्रुतनिश्रित मति में अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह दोनों होते हैं। जबकि औत्पातिकी आदि बुद्धियों से उत्पन्न अश्रुतनिश्रित मति में केवल अर्थवाग्रह ही होता है, क्योकि व्यंजनावग्रह इन्द्रिय आश्रित होता है। चार बुद्धियों का ज्ञान मानस ज्ञान है, इसलिए वहाँ व्यंजनावग्रह सम्भव नहीं है। इस तरह व्यंजनावग्रह की अल्पता, अव्यक्तता और गौणता के आधार पर ही अर्थावग्रह को पहले और व्यंजनवाग्रह को बाद में रखा गया है। स्थानांगसूत्र में केवल अवग्रह का ही उलेख किया है। अश्रुतनिश्रित में ईहा आदि का उल्लेख नहीं है, जिनभद्रगणि ने यह उल्लेख किसी ग्रंथ के आधार पर किया या स्वोपज्ञ, कुछ स्पष्ट नहीं है । स्थानांग में श्रुतनिश्रितअश्रुतनिश्रित भेदों का जो उल्लेख मिलता है, डॉ. हरनारायण पंड्या 15 कहते हैं कि स्थानांग में यह भेद आवश्यनिर्युक्ति के काल के बाद ही आये हैं। क्योंकि प्राचीन काल से ही इनका उल्लेख स्थानांगसूत्र में होता तो नियुक्तिकार भी इनका उल्लेख करते ।
211. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 2
213. स्थानांगसूत्र, स्था. 2. उ. 1 पृ. 36
214. स्थानांगवृत्ति, स्था. 2, उ. 1, सू. 71, पृ. 60
212. तत्त्वार्थसूत्र 1.15
215. जैनसम्मत ज्ञानचर्चा, पृ. 82-83