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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
नंदीसूत्र के कथनानुसार श्रोत्र आदि उपकरण द्रव्यों के साथ शब्दादि पुद्गलों का सम्बन्ध होना और श्रोत्रादि भाव इन्द्रियों के द्वारा शब्दादि पुद्गलों को अव्यक्त रूप में जानना - ' अवग्रह' कहलाता है। 222
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जिनदासगणि ने नंदीचूर्णि में कहा है कि जो अनिर्देश्य सामान्य मात्र रूप आदि अर्थों का ग्रहण किया जाता है अर्थात् जो नाम, जाति, विशेष्य- विशेषण आदि की कल्पना से रहित सामान्यमात्र का ज्ञान होता है, उसे अवग्रह कहते हैं
वीरसेन के मन्तव्यानुसार विषय व विषयी का सम्बन्ध होने के अनन्तर जो प्रथम ग्रहण होता है, वह अवग्रह है रस आदि अर्थ विषय है, पांचों इन्द्रियाँ एवं मन विषयी हैं, ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयी का सम्बन्ध है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्ति के कारणभूत परिणाम विशेष की सन्तति की उत्पत्ति से उपलक्षित होकर अन्तर्मुहूर्त्त कालस्थायी है। इसके बाद जो वस्तु का प्रथम ग्रहण होता है, वह अवग्रह है, यथा-चक्षु के द्वारा 'यह घट है, यह पट है' ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है जहाँ घटादि संज्ञा के बिना रूप, दिशा, आकार आदि विशिष्ट वस्तु मात्र ज्ञान के द्वारा अनध्यवसाय रूप से जानी जाती है, वहाँ भी अवग्रह ही है, अनवगृहीत अर्थ में ईहादि ज्ञानो की उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
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क्योंकि
वादिदेवसूरि के अनुसार विषय (पदार्थ) और विषयी (चक्षु आदि) का यथोचित देश में सम्बन्ध होने पर सत्तामात्र को जानने वाला दर्शन उत्पन्न होता है। इसके अनन्तर सबसे पहले, मनुष्यत्व आदि अवान्तर सामान्य से युक्त वस्तु को जानने वाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है । विषय अर्थात् घट आदि पदार्थ, विषयी अर्थात् नेत्र आदि जब योग्य देश में मिलते हैं तब सर्वप्रथम दर्शनोपयोग उत्पन्न होता है। दर्शन सत्ता को ही जानता है। इसके पश्चात् उपयोग कुछ आगे की ओर बढ़ता है और वह मनुष्यत्व आदि अवान्तरसामान्ययुक्त वस्तु को जान लेता है। यह अवान्तर सामान्य युक्त वस्तु अर्थात् मनुष्यत्व आदि का ज्ञान ही अवग्रह कहलाता है
मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार 1. जिसमें रूप, रस आदि का निर्देश न किया जा सके, जिसका स्वरूप स्पष्ट न हो, उस सामान्य मात्र अर्थ का ग्रहण अवग्रह है। 226
2. जो समस्त विशेषों को अपने अन्दर समेटे हुए होता है तथा किसी भी रूप से जो निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता है, ऐसे सामान्य (सत्मात्र) पदार्थ का एक समय में जो ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। 227
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मतान्तर जिनभद्रगणि ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए कहा है कि कुछेक आचार्य सामान्यविशेषात्मक पदार्थ का जो अवग्रहण है जैसे 'यह वह है' इस प्रकार जो मतिज्ञान होता है, उसे भी अवग्रह की श्रेणी में मानते हैं । इसके पीछे उनका तर्क है कि सामान्यविशेषात्मक ग्राहक के बाद 'यह वह है' ऐसा विमर्श रूप मतिज्ञान ईहा रूप होता है। ईहा ज्ञान जिस ज्ञान के बाद हुआ है, वह 222. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 182
223. इह सामण्णस्स रूवादिअसेसविसेसनिरवेक्खस्स जणिसस्स अवग्रहणं अवग्रहः । - नंदीचूर्णि पृ. 56 224. विषयविषयि........ ... ईहाद्यनुत्पत्ते । षट्खण्डागम (धवला टीका), पु. 13, सू. 5.5.23, पृ. 216-217 225. विषयविषयि सन्निपातानन्तरसमुद्भूतसत्तामात्रगोचरदर्शनाज्जातं, आद्यं, अवान्तरसामान्याकारविशिष्टवस्तुग्रहणमवग्रहः वादिदेवसूरि प्रमाणनयतत्त्वलोक, सूत्र 2.7
226. रूप - रसादिभैदेरनिर्देश्यस्याऽव्यक्तस्वरूपस्य सामान्यार्थस्याऽवग्रहणं परिच्छेदनमवग्रहः ।
227. मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति, गाथा 180, पृ. 91
- मलधारी हेमचन्द्र, बृहद्वृत्ति, गाथा 178, पृ. 90