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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[141] विशेषावश्यकभाष्य "जं सामि-काल-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिं तुल्लाइं। तब्भावे सेसाणि य तेणाईए मइ सुयाई158 में भी मति और श्रुत में समानता बताई है, जिसका उल्लेख पूर्व में कर दिया गया है।59 जिनभद्रगणि का अनुसरण हरिभद्र, मलधारी हेमचन्द्र, मलयगिरि आदि आचार्यों ने किया है।
अकलंक का भी यही मत है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का विषय बराबर है, मति और श्रुत सदा अव्यभिचारी हैं, नारद पर्वत की तरह एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ते, अत: एक के ग्रहण से दूसरे का ग्रहण हो ही जाता है तथा दोनों सहभावी है, जहाँ मति है, वहाँ श्रुत है, जहाँ श्रुत है वहाँ मति है।160
सिद्धसेन दिवाकर ने तो स्पष्ट शब्दो में दोनों में अभेदता को स्वीकार किया है। इसके लिए उन्होंने जो तर्क दिये हैं, उनका उल्लेख यशोविजयजी ने ज्ञानबिन्दुप्रकरण में निम्न प्रकार से किया है।
1. श्रुतोपयोग मति उपयोग से भिन्न नहीं है, क्योंकि मति उपयोग से उसके कार्य की प्रतिपत्ति हो जाती है।
2. श्रुत को मति से भिन्न माना जाता है तो अनुमान, स्मृति और प्रत्यभिज्ञान आदि को भी मतिज्ञान से भिन्न मानना पडेगा, क्योंकि उनमें भी सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष का अभाव है।
3. आगम में अवग्रह आदि को शब्दत: सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष रूप मानने से अनुमानादि अर्थतः परोक्षमति रूप है, इसी प्रकार श्रुतज्ञान को भी परोक्ष मति कहना चाहिए, क्योंकि अनुमानादि परोक्षज्ञान का तो परोक्षमति में समावेश कर लिया और श्रुतरूप परोक्षज्ञान को मतिज्ञान से भिन्न माना है जो कि सही नहीं लगता है। ___4. मति-श्रुत की भिन्नता के कारण 'मत्या जानामि' अर्थात् मति से जानता हूँ, 'श्रुत्वा जानामि' अर्थात् श्रुत से जानता हूँ, ऐसा अनुभव मति और श्रुत का भेदक धर्म है तो फिर 'अनुमाय जानामि' अर्थात् अनुमान से जानता हूँ, 'स्मृत्वा जानामि' अर्थात् स्मृति से जानता हूँ, ऐसा अनुभव अनुमान, स्मृति आदि को भी मति से पृथक् सिद्ध करता है। यदि अनुमितित्व आदि को मति का व्याप्य माना जाय तो शब्दत्व को मति का व्याप्तत्व क्यों नहीं कह सकते हैं? पूर्वपक्ष यदि ऐसा कहे कि श्रुत के समय 'मत्या न जानामि' अर्थात् मति से नहीं जानता हूँ, ऐसी प्रतीति होती है, इसलिए मति और श्रुत भिन्न हैं, तो उसका उत्तर यह है कि जैसे वैशेषिकों 'नानुमिनोमि' ऐसी प्रतीति शब्दज्ञान की अपेक्षा विशेष विषयक है। वैसे ही 'मत्या न जानामि' ऐसी प्रतीति मतिज्ञान में विशेषविषयक है, ऐसा मानने पर किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती है।
5. मति का कार्य निसर्गज सम्यक्त्व है और श्रुत का कार्य अधिगमज सम्यक्त्व है, तो कार्य भिन्न होने से कारण (मति-श्रुत) भी भिन्न हैं, तो उसका समाधान यह है कि दोनों प्रकार के सम्यक्त्व में मुख्य कारण तो तदावरणक्षयोपशम है। इससे कार्य की भिन्नता प्राप्त नहीं होती है।61
इस प्रकार मति-श्रुत को अभिन्न सिद्ध करने का यह प्रयास सिद्धसेन दिवाकर की विशेषता को इंगित करता है, ऐसा तार्किक प्रयास दिगम्बर साहित्य में प्राप्त नहीं होता है। यशोविजयजी जैन वाङ्मय में एक ऐसे विद्वान् थे, जिन्होंने मति और श्रुत की आगमसिद्ध युक्ति को स्वीकार करते हुए भी सिद्धसेन के मत का तार्किक शैली से समर्थन किया है।62
158. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 85 159. द्वितीय अध्याय - 'ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय', पृ. 64 161. ज्ञानबिन्दुप्रकरण पृ. 16-17
160. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.19-20 पृ. 34 162. ज्ञानबिन्दुप्रकरण, परिचय, पृ. 23