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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
मतिज्ञान के भेद
आगम काल से लेकर विशेषावश्यकभाष्य के काल तक मतिज्ञान के भेदों की संख्या विभिन्न प्रकार से प्राप्त होती है।
मतिज्ञान के 28 भेदों का उल्लेख श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों परम्पराओं में प्राप्त होता है। इसका उल्लेख सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में देखने को मिलता है और उसके बाद तत्त्वार्थाधिगम सूत्र, षट्खण्डागम, कसायपाहुड आदि में भी ऐसा ही उल्लेख प्राप्त होता है। इससे ये भेद प्राचीन प्रतीत होते हैं। षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र के समय में विशेष विचारणा के साथ यह संख्या 336 और 384 तक पहँच गई। नंदीसूत्र में ये भेद श्रुतनिश्रित के हैं, जबकि षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र में यही भेद मति सामान्य के है। नंदीसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार मतिज्ञान के भेद
नंदीसूत्र में मतिज्ञान के 28 भेदों का उल्लेख मिलता है। अवग्रह (अर्थावग्रह) ईहा, अवाय और धारणा के छह-छह भेद (पांच इन्द्रियां और मन) इस प्रकार चौबीस भेद होते हैं, इन में व्यंजनावग्रह के (चक्षु और मन को छोडकर) चार भेद मिलाने पर श्रुतनिश्रित मति के 28 (6+6+6+6+4-28) भेद होते हैं।63
मतान्तर - भाष्यकार ने मतान्तर का उल्लेख किया है कि कतिपय आचार्य अवग्रह आदि चार को पांच इंद्रिय और मन इन छह से गुणा करने पर चौबीस भेद करते हैं तथा औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी इन चार प्रकार की बुद्धियों को मिलाकर मतिज्ञान के 28 भेद करते हैं। उनका कहना है कि यहाँ पर सम्पूर्ण मतिज्ञान के भेदों का उल्लेख है। यदि अश्रुतनिश्रित रूप चार प्रकार की बुद्धि का यहाँ ग्रहण नहीं करेंगे तो श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ही 28 भेद हो जायेंगे, न कि सम्पूर्ण मतिज्ञान के, इसलिए उक्त प्रकार से मतिज्ञान के 28 भेद करने चाहिए। जिसमें श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित दोनों के भेदों का समावेश हो जाए। शंका - यदि इस प्रकार मतिज्ञान के भेद कहेंगे तो व्यंजनावग्रह के चार भेदों का क्या होगा? समाधान - अवग्रह के दो भेद होते हुए भी सामान्य रूप से अर्थावग्रह के भेदों में व्यंजनावग्रह के भेदों का समावेश हो जाता है। जैसे कि सेना में हाथी, घोड़े, पैदल सैनिक आदि सभी का समावेश हो जाता है। इसी प्रकार अवग्रह सामान्य रूप से एक ही मानने पर उसमें अर्थावग्रह एवं व्यंजनावग्रह का समावेश हो जाता है। अवग्रह आदि चार में प्रत्येक के छह-छह भेद होने पर श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के 24 भेद और अश्रुतनिश्रित रूप चार प्रकार की बुद्धि मिलाने पर मतिज्ञान के 28 भेद प्राप्त होंगे।
जिनभद्रगणि इस मतान्तर का खण्डन करते हुए कहते हैं कि अवग्रहादि चार से अश्रुतनिश्रित भिन्न नहीं है। अतः अश्रुतनिश्रित चार प्रकार की बुद्धि का समावेश भी अवग्रहादि में ही है। जिस प्रकार अवग्रह सामान्य होने से व्यंजनावग्रह के चार भेद छोड़ सकते हैं, वैसे ही चार प्रकार की बुद्धि को भी छोड़ा जा सकता है। अतः मतिज्ञान के अर्थावग्रह के 24 भेद और व्यंजनावग्रह के 4 इस प्रकार मतिज्ञान के कुल 28 भेद मानना ही उचित हैं।164
यदि यहाँ कोई शंका करे कि औत्पातिकी आदि चार प्रकार की बुद्धि में अवग्रहादि चार भेद कैसे सम्भव है, तो इसके समाधान में जिनभद्रगणि कहते हैं कि नंदीसूत्र में नट पुत्र भरत, शिला आदि बहुत से दृष्टांत बताये हैं, जिनमें अवग्रहादि चारों घटित होते हैं। जैसे कि औत्पातिकी बुद्धि के लिए 163. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 178
164. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 300-303