________________ [140] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अभिलाप्य और अनभिलाप्य का विचार ___ 'अहव भइ दव्वसुयत्तमेउ भावेण सा विरुज्झेज्जा। जो असुयक्खरलाभो, तं भइसहिओ पभासेज्जा' गाथा 136 के उत्तरार्द्ध में कहा है कि 'अन्यत्र भी श्रुत हो सकता है' इस कथन से मतिज्ञान दो प्रकार का प्रतीत होता है, यथा बोलने वाले वक्ता का मतिज्ञान जो कि द्रव्यश्रुत रूप है, तथा जिसका कथन नहीं किया जाता है, वह मतिज्ञान भी द्रव्यश्रुत हो सकता है, लेकिन जितना मतिज्ञान से जाना, उस सब का कथन करे ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि जितना बोला जा सकता है, उसकी अपेक्षा अकथनीय (उपलब्ध ज्ञान) मतिज्ञान अनन्तगुणा अधिक होता है।52 पूर्वपक्ष - मतिज्ञान153 और श्रुतज्ञान154 से उपलब्ध सभी पदार्थों का कथन करना सम्भव नहीं है। उत्तपक्ष - दोनों ज्ञानों का बहुत्व (प्राचुर्य) है। क्योंकि सम्पूर्ण आयु पर्यन्त भी मति-श्रुतज्ञानी ज्ञात पदार्थों के अनन्तवें भाग को ही बोल पाता है। ऐसा आगम में उल्लेख है। श्रुतज्ञान से ज्ञात सभी पदार्थों का कथन कर पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि उनकी बहुलता है और शेष मति आदि चार ज्ञानों के द्वारा ज्ञात पदार्थ बहुलता में होते हुए स्वभाव से ही अनभिलाप्य हैं। क्योंकि अभिलाप्य (प्रज्ञापनीय) पदार्थ अनभिलाप्य पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं और जो श्रुत-निबद्ध (चौदहपूर्व) हैं, वह अभिलाप्य पदार्थों का अनन्तवां भाग ही है। क्योंकि उत्कृष्ट चौदहपूर्वी समस्त कथनीय वस्तुओं के ज्ञाता होते हुए भी परस्पर षट्स्थानपतित न्यून्याधिक हैं। क्योंकि सभी अभिलाप्य पदार्थ यदि श्रुतनिबद्ध होते तो उनके ज्ञानियों की परस्पर तुल्यता ही होती, षट्स्थानपतित न्यून्याधिकता नहीं बताई जाती। इस हीनाधिकता का कारण क्षयोपशम की विचित्रता है, क्योंकि अक्षर लाभ की दृष्टि से सभी चौदहपूर्वी का ज्ञान समान है, उनमें कोई अन्तर नहीं है।155 मति और श्रुत में अभेद श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के लगभग सभी आचार्यों ने मति और श्रुत को भिन्न रूप में स्वीकार किया है, लेकिन अपनी व्याख्या और विवेचन में ऐसा अंश छोड़ा है जिससे इन दोनों में अभेद भी लक्षित होता है। जैसेकि नंदीसूत्र में 'दोऽवि एयाइं अण्णमण्णमणुगयाइं तहवि पुण इत्था आयरिया णाणत्तं पण्णवयंति।156 अर्थात् मति और श्रुतज्ञान अन्योन्य अनुगत हैं, तथापि आचार्य इन दोनों में भेद बताते हैं। उपर्युक्त नंदीसूत्र के पाठ में आये हुए 'तहवि' से विदित होता है कि नंदीसूत्र से पूर्व काल में इन दोनों ज्ञानों को भिन्न और अभिन्न मानने की परम्परा प्रचलित रही होगी। इसलिए आचार्यों ने इनमें भेद करने का प्रयास किया। नंदीसूत्र के इस पाठ का समर्थन पूज्यपाद और अकलंक ने भी किया है। लेकिन ऐसा अर्थ करना उचित नहीं, क्योंकि नंदीसूत्र में जो सहचारित्व बताया है, वह किसी विशेष ज्ञान की अपेक्षा से नहीं होकर सामान्य रूप से कथन है। क्योंकि सभी जीवों में दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में कम से कम दो ज्ञान तो होते हैं। अत: यह नियम है कि मति और श्रुत के बिना कोई जीव नहीं होता है। इसी अपेक्षा से दोनों का सहचारित्व बताया है। 152. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 137 153. इयरम्मि वि मइनाणे, होज तयं तस्समं जइ भणेजा। न य तरइ तत्तियं, सो जमणेगगुणं तयं तत्तो।-विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 137 154. इयरत्थऽवि भावसुये, होज तयं तस्समं जइ भणिज्जा। न य तरइ तत्तियं, सो जमणेगगुणं तयं तत्तो। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 130 155. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 138-143 156. पारसमुनि नंदीसूत्र पृ. 97 157. सर्वार्थसिद्धि 1.30, राजवार्तिक 1.9.30