________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [139] मलयगिरि ने भी ऐसा उल्लेख किया है कि मतिज्ञान का विषय है - वर्तमानवी वस्तु / श्रुत ज्ञान का विषय, अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों कालों में समान परिणमन वाली ध्वनि (शब्द) है। 44 9. इन्द्रिय एवं मन की निमित्तता के आधार पर दोनों में भेद उमास्वाति के अनुसार मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्त है और श्रुतज्ञान मनोनिमित्त है। जिनभद्रगणि के अनुसार दोनों ज्ञान इन्द्रिय और मनोनिमित्त होते हैं। हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजयजी ने भी इसका समर्थन किया है। 45 अकलंक के अनुसार मतिज्ञान इन्द्रिय और मनोनिमित्त और श्रुतज्ञान मनोनिमित्त है।146 इसके समन्वय का प्रयास करते हुए विद्यानंद ने कहा है कि मति साक्षात् इन्द्रिय मनोनिमित्त है, जबकि श्रुत साक्षात् मनोनिमित्त है और परम्परा से इन्द्रियमनोनिमित्त है। 47 इस स्पष्टता से उमास्वाति, जिनभद्रगणि और अकलंक के मत में कोई भिन्नता नहीं रहती है। श्रुतज्ञान में इन्द्रिय और मन कारण नहीं __कन्हैयालाल लोढ़ा का अभिमत है कि श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन से नहीं होता है क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 'श्रुतमनिन्द्रियस्य'148 अर्थात् श्रुतज्ञान अनिन्द्रिय (इन्द्रियों के विषय से रहित) का विषय है। वे कहते हैं कि कतिपय विद्वान् अनिन्द्रिय का अर्थ मन करते हैं, परन्तु यह उचित नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रिय आदि 'मन रहित' सभी असन्नी प्राणियों के श्रुतज्ञान या श्रुतअज्ञान नियम से होता है। यदि सूत्रकार को श्रुत का विषय मन इष्ट होता, तो 'श्रुतं मनसः' सूत्र ही रच देते। विधिपरक 'मनसः' शब्द के स्थान पर निषेधात्मक अनिन्द्रियस्य शब्द लगाया ही इसलिए गया है कि इन्द्रिय और मन आदि मतिज्ञान के विषय को श्रुतज्ञान नहीं समझा जाएं। यह अक्षर श्रुतज्ञान जीव में सदैव विद्यमान है। केवल उस पर आवरण आ गया है। आवरण विद्यमान वस्तु पर ही होता है, अविद्यमान वस्तु पर आवरण नहीं आ सकता। आशय यह है कि अक्षर श्रुतज्ञान का अर्थ क, ख, ग आदि अक्षरों से संबद्ध नहीं होकर क्षरण रहित अमरत्व, ध्रुवत्व व आविनाशित्व के ज्ञान से संबंधित है। 49 क्या मतिज्ञान द्रव्यश्चत रूप है? _ 'बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मई सहियं। इतरत्थ वि होज सुयं, उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा।150 गाथा से यह फलितार्थ निकलता है कि मतिज्ञान भावश्रुत रूप तो नहीं हो सकता है, लेकिन उसे द्रव्यश्रुत के रूप में स्वीकार करें तो कोई बाधा नहीं है। इसी क्रम में जिनभद्रगणि कहते हैं कि मतिज्ञान के द्रव्यश्रुत में परिवर्तित होने में बाधा नहीं है क्योंकि मति (बुद्धि) द्वारा देखे गए पदार्थ को मति उपयोग सहित होकर बोल रहे वक्ता का मतिज्ञान द्रव्यश्रुत (शब्द रूप) का कारण है, अत: वह द्रव्यश्रुत रूप है। जबकि जिसका कथन नहीं किया जा रहा है वह मतिज्ञान है। द्रव्यश्रुत भी तभी होगा जबकि जो अश्रुतानुसारी (अपनी मति से ही) पर्यालोचित मति पदार्थों में ईहा, अपाय रूप ज्ञान में जो अक्षर लाभ होता है, वह शब्द रूप द्रव्यश्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत है। लेकिन श्रुतानुसारी अर्थात् परोपदेश/तीर्थंकर वचन रूप श्रुत का अनुसरण कर जो आन्तरिक अक्षर-लाभ होता है, उसे वक्ता श्रुतोपयोग में रहकर ही बोलता है, अतः यहाँ बोले गए शब्द का कारण मतिज्ञान नहीं, क्योंकि वह श्रुतपूर्वक है। इसलिए यहाँ मतिज्ञान द्रव्यश्रुत रूप नहीं होगा।51 144. मलयगिरि पृ. 66 145. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 144, हारिभद्रीय पृ. 52, मलयगिरि पृ. 141, जैनतर्कभाषा पृ. 6 146. उभयेरिन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तत्वादिति चैन्न असिद्धत्वात्। - तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.30-32 147. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 1.9 148. तत्त्वार्थसूत्र 2.22 149. बन्ध तत्त्व, पृ. 11 150. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 128 151. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 136