________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [125] रूप से अवग्रह ही हैं। मति की चेष्टा (व्यापार) ईहा है, चेष्टा करना इस व्युत्पत्ति से सम्पूर्ण मतिज्ञान मति के व्यापार रूप ही है, अतः सभी सामान्य रूप से ईहा रूप ही है, क्योंकि अवग्रह, अपाय और धारणा भी सामान्य से मति के व्यापार (चेष्टा) रूप ही है। जो निश्चय होता है, वह अपाय या अवाय है। इस व्युत्पत्ति से सम्पूर्ण मतिज्ञान अर्थ निश्चय रूप है, क्योंकि अवग्रह, ईहा और धारणा में भी सामान्य रूप से अर्थ का निश्चय होता ही है। धारण करना धारणा है, इस व्युत्पत्ति से सम्पूर्ण मतिज्ञान अर्थ को धारण करने रूप होने से धारणा रूप ही है, क्योंकि अवग्रह, ईहा और अपाय में भी सामान्य रूप से अर्थधारण होता ही है। इस प्रकार अवग्रहादि शब्दों से सम्पूर्ण मतिज्ञान का ग्रहण होता है। यह उल्लेख जिनभद्रगणि के वैशिष्ट्य को दर्शाता है। पर्यायवाची शब्दों का स्वरूप विशेषावश्यकभाष्य की गाथा 396 में मतिज्ञान के दिये गये पर्यायवाची शब्दों का अर्थ टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र और अन्य आचार्यों ने निम्न प्रकार से किया है। - 1. ईहा - अन्वय और व्यतिरेक धर्म की समालोचना अर्थात् यथार्थ पर्यालोचना को 'ईहा' कहते हैं। यह मतिज्ञान का दूसरा भेद है। 2. अपोह - निश्चय को 'अपोह' कहते हैं। यह मतिज्ञान के तीसरे भेद अवाय का पर्यायवाची शब्द है। 3. विमर्श -विमर्श का प्राकृत शब्द 'वीमंसा' होता है। सूत्रकृतांग में विचारपरक अर्थ (मीमांसा) में इसका प्रयोग हुआ है। सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में विमर्श का सम्बन्ध मतिज्ञान के साथ किया गया है। नंदीसूत्र में इसका प्रयोग ईहा के पर्यायवाची के रूप में हुआ है। जिनदासगणि के अनुसार 'नित्यत्व-अनित्यत्व विशिष्ट द्रव्यभाव से अर्थ का आलोचन विमर्श है।' हरिभद्र और मलयगिरि के मतानुसार 'व्यतिरेक धर्म का त्यागपूर्वक अन्वयधर्म का आलोचन विमर्श है।'34 मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार सत्पदार्थ में पाये जाने वाले धर्म के स्पष्ट विचार को 'विमर्श' कहते हैं। विमर्श ईहा और अवाय के बीच की अवस्था है। जैसे सिर को खुजालते हुए देखकर यह ज्ञान होता है कि खुजलाना पुरुष में घटित होता है, स्तंभ में नहीं। न्याय दर्शन का विमर्श जैनसंमत विमर्श से भिन्न है, क्योंकि वहाँ संशय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जबकि जैनाचार्य ईहा ज्ञान को संशय से भिन्न स्वीकार करते हैं। 4. मार्गणा - मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार सत्पदार्थ में पाये जाने वाले (अन्वय) धर्मों की खोज 'मार्गणा' हैं। भगवती सूत्र में मार्गणा शब्द प्रयुक्त हुआ है। सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग मतिज्ञान के लिए आवश्यकनियुक्ति में हुआ है। नंदी और षट्खण्डागम के काल में इसका प्रयोग ईहा के पर्यायवाची के रूप में हुआ है। नंदीसूत्र की टीका में मार्गणा का अर्थ 'अन्वय और व्यतिरेक धर्म की खोज' किया गया है। धवलाटीका में मार्गणा का अर्थ नंदीवृत्ति के समान ही प्राप्त होता है। 30. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 400-401 की टीका 31. सूत्रकृतांगसूत्र 1.1.2.17 32. आवश्यकनियुक्ति गाथा 12 33. नंदीसूत्र, पृ. 131 34. नंदीचूर्णि पृ. 68, हारभिद्रीय वृत्ति पृ. 69, मलयगिरि वृत्ति पृ. 176 35. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 181-183, न्यायदर्शन 1.1.13 36. ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं अण्णाणे समुप्पन्ने। - भगवतीसूत्र श. 11. उ. 1 पृ. 41 37. आवश्यकनियुक्ति गाथा 12 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 396 38. नंदीसूत्र, पृ. 131, षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.38 39. नंदीचूर्णि पृ. 68, हारिभद्रीय पृ. 69, मलयगिरि पृ. 176 40. षटखण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.38 पृ.242