________________ [126] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 5. गवेषणा - मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार सत्पदार्थ में नहीं पाये जाने वाले (व्यतिरेक) धर्मों की विचारणा को 'गवेषणा' कहते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र और सूत्रकृतांग में गवेषणा शब्द का प्रयोग मिलता है। आवश्यकनियुक्ति में सर्वप्रथम इसका प्रयोग मतिज्ञान के लिए हुआ है। नंदी और षट्खण्डागम में इसका प्रयोग ईहा के पर्यायवाची के रूप में हुआ है। नंदीसूत्र की टीका में गवेषणा का अर्थ 'व्यतिरेक धर्म का त्याग और उसके ही अन्वय धर्म की आलोचना' किया गया है। धवलाटीका में गवेषणा का अर्थ स्पष्ट नहीं किया है। ___6. संज्ञा - पदार्थ को अव्यक्त रूप में जानना संज्ञा है। द्रव्य इंद्रिय आदि की सहायता के बिना होने वाले क्षुधा वेदन आदि को भी 'संज्ञा' कहते हैं। यह मतिज्ञान के पहले भेद अवग्रह का पर्यायवाची है। आगम काल में भगवतीसूत्र में दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, शरीर, योग और उपयोग के साथ तथा सूत्रकृतांग में तर्क, प्रज्ञा, मन, और वाक् के साथ भी संज्ञा शब्द प्रयुक्त हुआ है। बौद्ध दर्शन में यह वेदना, चेतना आदि शब्दों के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन दर्शन में इसके दो अर्थ मिलते हैं - 1. ज्ञान अथवा समझ और 2. आहारादि दस संज्ञा / बौद्ध दर्शन में यह ज्ञान और निमित्तोदग्रहण इन दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। मतिज्ञान के अर्थ में इसका प्रयोग सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में हुआ है, जिसका उल्लेख नंदीसूत्र, षट्खण्डागम, तत्त्वार्थसूत्र, पूज्यपाद, जिनभद्रगणि, अकलंक, मलयगिरि आदि आचार्यों ने भी किया है। संज्ञा के आधार पर भी जीवों को संज्ञी और असंज्ञी में विभाजित किया जाता है। नंदीसूत्र में संज्ञी-असंज्ञी के अर्थ में तीन संज्ञाओं का प्रयोग हुआ है। जिनभद्रगणि ने इसका प्रयोग ईहा और मनोविज्ञान इन दो अर्थों में किया है। हरिभद्र, मलधारी हेमचन्द्र और मलयगिरि के अनुसार व्यंजनावग्रह के उत्तर काल में होने वाली मति संज्ञा है।" उमास्वाति ने संज्ञा का अर्थ सम्प्रधारणसंज्ञा किया है। पूज्यपाद और अकलंक ने 'संज्ञा' शब्द को आहारादि संज्ञा, समनस्कता, हिताहित का त्याग और ग्रहण तथा ज्ञान अर्थ में प्रयुक्त किया है। साथ ही अकलंक ने राजवार्तिक में संज्ञा का सम्बन्ध मतिज्ञान से और लघीस्त्रय में श्रुतज्ञान के साथ किया है। धवलाटीका में संज्ञा को सम्यक्ज्ञान का हेतु माना है। इस प्रकार जैन परम्परा में संज्ञा के विभिन्न अर्थ प्राप्त होते हैं। 41. सूत्रकृतांगसूत्र 1.3.4 गाथा 14, उत्तराध्ययन सूत्र अ. 24 गाथा 11 42. आवश्यकनियुक्ति गाथा 12 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 396 43. नंदीसूत्र, पृ. 131, षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.38 44. नंदीचूर्णि पृ. 68, हारिभद्रीय पृ. 69, मलयगिरि पृ. 176 45. षटखण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.38 पृ. 242 46. दिट्ठी दंसण णाणा सण्ण सरीरा य जोग उवओगे। - भगवतीसूत्र श. 1, उ. 6, पृ. 115 47. सूत्रकृतांगसूत्र 2.4.4 पृ. 140 48. अभिधर्मकोश भाष्य 2.24 49. 'णो सण्णा भवइ' आचारांगसूत्र 1.1.1 50. 'ते एवं सण्णं कुव्वंति' सूत्रकृतांगसूत्र श्रु. 2 अ. 1 पृ. 30 51. भगवतीसूत्र श. 7 उ. 8 पृ. 175-176, प्रज्ञापनासूत्र आठवां पद 52. अभिधर्मकोश भाष्य 1.21 53. आवश्यकनियुक्ति गाथा 12, विशेषावश्यकभाष्य 396 54. नंदीसूत्र पृ. 144, षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.41, तत्त्वार्थसूत्र 1.13, सर्वार्थसिद्धि 1.13, हारिभद्रीय पृ. 69, राजवार्तिक 1.13.12 55. नंदीसूत्र पृ. 149 56. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 397, 507 57. हारिभद्रीय पृ. 70, मलयगिरि पृ. 187 58. तत्त्वार्थभाष्य 2.25 59. सर्वार्थसिद्धि 2.24, राजवार्तिक 1.24.1-5 60. राजवार्तिक 1.13.12, लघयस्त्रीय, परिच्छेद 3 गाथा 10-11 61. धवला पु. 13, सू. 5.5.41 पृ. 244