________________ [124] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन स्मृति, संज्ञा और आभिनिबोधिक आदि कुछ शब्द आगमिक परम्परा में मति के पर्यायवाची के रूप में स्थिर हो गये और तार्किक परम्परा में उन्हीं भेदों का परोक्ष ज्ञान में समावेश कर लिया गया है। जैसेकि स्मृति को धारणा के बाद होने वाले ज्ञान के रूप में, संज्ञा को प्रत्यभिज्ञान के रूप में, चिंता, तर्क और ऊहा को तर्कज्ञान इत्यादि के रूप में। शेष ईहा, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा और संज्ञा इन सभी का ईहा में अंतर्भाव होता है। 2. षट्खण्डागम में मति, स्मृति, संज्ञा और चिन्ता इन चार शब्दों का प्रयोग हुआ है। 3. तत्त्वार्थसूत्र में मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और आभिनिबोधिक इन पांच शब्दों का प्रयोग हुआ है। साथ ही नंदीसूत्र, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थभाष्य में अवग्रह ईहा आदि भेदों के लिए भी विभिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनका उल्लेख अवग्रहादि के वर्णन में किया गया है। उपर्युक्त प्रयुक्त पर्यायवाची नामों में मति, प्रज्ञा, आभिनिबोधिक और बुद्धि ये वचनपर्याय हैं तथा शेष अवग्रहादि अर्थपर्याय है। अतः सभी अर्थपर्याय और वचनपर्याय सामान्य से आभिनिबोधिक ज्ञान ही हैं। अथवा वस्तु का कथन करने वाले शब्द वचनपर्याय और उस शब्द के अभिधेय अर्थ के भेद अर्थपर्याय रूप हैं। जैसे कि सोने के कंगन, बाजूबंद आदि भेद अर्थपर्याय हैं। इस व्याख्या से मति, प्रज्ञा, अवग्रह, ईहा आदि सभी शब्द मतिज्ञान की वचनपर्याय रूप है और इन शब्दों से मतिज्ञान के कहने योग्य भेद अर्थपर्याय हैं। इसमें भी मति-प्रज्ञा आदि शब्द सम्पूर्ण मतिज्ञान के वाची हैं और अवग्रह, ईहा आदि शब्द मतिज्ञान के एकदेशवाची हैं, ऐसा कहा गया है। लेकिन ये भी सम्पूर्ण मतिज्ञान वाची हैं, इसको निम्न प्रकार से सिद्ध किया है। अवग्रहादि शब्द अर्थ विशेष की अपेक्षा से भिन्न हैं, क्योंकि अवग्रहादि अपने लक्षण के अनुसार अर्थ का ग्रहण करते हैं, जैसे सामान्य ग्रहण से अवग्रह, चेष्टा रूप अर्थ से ईहा, निश्चयरूप अर्थ से अवाय और धारण करने रूप अर्थ से धारणा, इस प्रकार ग्रहण करने रूप अर्थविशेष की अपेक्षा से ही अवग्रहादि शब्द भिन्न हैं, वास्तव में तो ये आभिनिबोधिक ज्ञान रूप ही है। अवग्रहादि अर्थविशेष की अपेक्षा से ही भिन्न-भिन्न है। क्योंकि सामान्य ग्रहण-विचारणा-निश्चय और धारण करना यह सामान्य स्वरूप है। यह सभी में अनुक्रम से होता है, अवग्रहादि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि अवग्रह में जिस सामान्य का ग्रहण होता है, वह ईहा रूप नहीं है, परन्तु उससे विशेष-विशेष अर्थ ग्रहण से अनुक्रम से ईहादि होते हैं। जो विशेष अर्थ ईहा में होता है, वह अवग्रह में नहीं होता है, इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। इसलिए ईहा अवग्रह रूप नहीं है, इत्यादि। अतः अर्थपर्याय और वचन पर्याय की दोनों व्याख्याओं में दूसरी व्याख्या तो वृद्ध सम्मत है और प्रथम व्याख्या युक्ति संगत है। इसलिए ये दोनों व्याख्याएं निर्दोष है। मतिज्ञान के भेदों का अर्थपर्याय और वचनपर्याय से कथन करना जिनभद्रगणि का वैशिष्ट्य है। अवग्रहादि शब्दों से सम्पूर्ण मतिज्ञान का ग्रहण जिनभद्रगणि कहते हैं कि ग्रहण करना अवग्रह है, इस व्युत्पत्ति से अवग्रह, ईहा आदि भेद वाला सम्पूर्ण मतिज्ञान अवग्रह रूप ही है, क्योंकि अवग्रह का तात्पर्य अर्थ को ग्रहण करना है, वैसे ही ईहा, अवाय और धारणा भी किसी न किसी अर्थ को ग्रहण करते ही हैं, इसलिए ये सब सामान्य 25. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.41 26. तत्त्वार्थसूत्र 1.13 27. जो शब्द वस्तु का सम्पूर्ण प्रकार से प्रतिपादन करता है, वह शब्द वस्तु की वचन पर्याय कहलाता है। 28. जो शब्द वस्तु का एकदेश से प्रतिपादन करता है, वह शब्द वस्तु की अर्थपर्याय कहलाता है। 29. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 396-399 की टीका