________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [113] 8. बौद्धदर्शन में शून्यवादी के अनुसार तीन दृष्टिकोण मान्य हैं - 1. मिथ्यासंवृति, 2. तथ्यसंवृति और 3. परमार्थ / विज्ञानवादी भी तीन दृष्टिकोणों का उल्लेख करते हैं - 1. परिकल्पित 2. परतन्त्र और 3. परिनिष्पन्न। विज्ञानवाद का परतन्त्र जैन दर्शन के परोक्षज्ञान के निकट है। यहाँ उसे परतन्त्र इसलिए कहा गया है कि वह ज्ञान, मन और इन्द्रियों के अधीन होता है। जैन परम्परा के निश्चयनय को विज्ञानवादियों ने परिनिष्पन्न और शून्यवादियों ने परमार्थ कहा है और व्यवहारनय को विज्ञानवादियों ने परतन्त्र और शून्यवादियों ने लोकसंवृत्ति कहा है। सांख्यदर्शन 1. सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष के दो भेद किये हैं - निर्विकल्प और सविकल्प जो जैन दर्शन द्वारा मान्य अनाकार (दर्शन) और साकार (ज्ञान) के तुल्य है।76 2. सांख्य-योग ज्ञानावरण का संबंध चित्त के साथ जोड़ते हैं, क्योंकि ज्ञान पुरुष का नहीं चित्त का स्वभाव है। सांख्यदर्शन में चितवृत्ति को ज्ञान के रूप में स्वीकार किया है। जैनदर्शन में ज्ञान का सम्बन्ध आत्मा से जोड़ा जाता है | 3. सांख्य आदि छह वैदिक दर्शन-78 तथा बौद्ध दर्शन अक्ष का अर्थ इन्द्रिय करते हैं, और इन्द्रिय से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। जबकि जैनदर्शन इन्द्रियजन्य ज्ञान को परोक्ष मानता है। जिनभद्रगणि ने इस विषय में और स्पष्टता करते हुए कहा है कि इन्द्रियज्ञान (मतिज्ञान) परमार्थतः परोक्ष है, जबकि व्यवहारतः प्रत्यक्ष है।79 4. सांख्य दर्शन में केवलज्ञान अथवा कैवल्य की अवधारणा जैन दर्शन का भांति स्पष्ट है 80 5. सांख्य-योग के अनुसार चित्त ज्ञाता है और पुरुष द्रष्टा है। पुरुष चित्तवृत्ति देखता है, चित्त का ज्ञान कार्य और पुरुष का दर्शन कार्य युगपत् होता है। मीमांसा दर्शन 1. मीमांसा दर्शन में अज्ञात अर्थ के ज्ञान को ही प्रमाण माना है, जबकि जैनदर्शन में गृहीतग्राही ज्ञान भी प्रमाण की कोटि में लिया गया है। 2. मीमांसक प्रत्यक्ष ज्ञान को निर्विकल्प और सविकल्प मानते हैं, जो कि जैनदर्शन के साकार और अनाकार उपयोग के तुल्य हो सकता है। 3. मीमांसा दर्शन में प्रत्यक्ष के अतिरिक्त परोक्ष ज्ञान के रूप में पांच प्रमाण माने गये हैं - अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि। इनमें अंतिम प्रमाण अनुपलब्धि को केवल भट्टमीमांसक मानते हैं, प्रभारक नहीं 1 जैनदर्शन में प्रमाण के दो प्रकार हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान एवं आगम ये पांच प्रमाण स्वीकृत है। 4. मीमांसा दर्शन में स्वतः प्रामाण्यवाद का मत स्वीकृत है। इनके अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य (प्रामाणिकता) उस ज्ञान की उत्पादक सामग्री में ही विद्यमान रहता है, कहीं बाहर से नहीं आता 277. सांख्यतत्त्व कौमुदी, पृ. 5 276. भारतीयदर्शन, पृ. 270 278. न्याकुमुदचन्द्र टि. पृ. 24-25 280. सांख्यकारिका, 64,68 281. भारतीयदर्शन, पृ. 298