________________ [114] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन है। अतः ज्ञान उत्पन्न होते ही उसके प्रामाण्य का भी ज्ञान होता है 182 जैनदर्शन में अभ्यास दशा में ज्ञान का स्वतः प्रामाण्य तथा अनभ्यास दशा में परतः प्रामाण्य माना गया है। 5. प्रभाकर मीमांसकों के अनुसार प्रत्येक पदार्थ के विषय के ज्ञान के लिए अंग उसमें विद्यमान रहते हैं - 1. ज्ञाता (जानने वाला) 2. ज्ञेय (जो विषय जाना जाता है) 3. ज्ञान (पदार्थ को जानना) जैसेकि 'मैं (ज्ञाता) यह घड़ा (ज्ञेय) जानता हूँ (ज्ञान)' इन तीनों का ज्ञान एक साथ होता है। इसे त्रिपुटी ज्ञान कहते हैं। जब कभी ज्ञान उत्पन्न होता है, तब वह ज्ञाता, ज्ञेय और स्वयं को प्रकट करता है। इसलिए ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय का प्रकाशक होने के साथ-साथ स्वयं का भी प्रकाशक होता है। लेकिन भाट्ट मीमांसकों का मानना है कि ज्ञान स्वभावतः अपना विषय स्वयं नहीं हो सकता है अर्थात् ज्ञान का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं होता। वह परोक्ष रूप से, ज्ञाता के आधार पर अनुमान के द्वारा प्राप्त होता है।283 6. मीमांसकों का 'आलोचना ज्ञान' या बौद्धों का 'निर्विकल्प ज्ञान' अकलंक के अनुसार अवग्रह से पूर्व होने वाले दर्शन के समान है। 7. भाट्टमीमांसक और अद्वैत वेदान्तियों ने प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति तथा अनुपलब्धि इन छह प्रमाणों को ज्ञान रूप में स्वीकार किया है। 8. मीमांसकों के अनुसार कोई भी मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। 9. भाट्टमीमांसक दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान स्वप्रकाश नहीं होता है, जबकि जैन दार्शनिकों के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशक होता है / 284 वेदान्त दर्शन वेदान्त के अनुसार केवल ब्रह्म ही सर्वज्ञ हो सकता, कोई मनुष्य नहीं। वैदिक मान्यतानुसार आत्मा की सहायता से मन ज्ञान प्राप्त करता है, लेकिन अतीन्द्रिय ज्ञान में मन की उपस्थिति उचित प्रतीत नहीं होती है। क्योंकि जैन परम्परा में अतीन्द्रिय ज्ञान को आत्मसापेक्ष माना गया है। वैदिक और बौद्ध परम्परा इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष स्वीकार करती हैं 85 जबकि जैनदर्शन में मति (इन्द्रियजन्य ज्ञान) और श्रुतज्ञान को परमार्थतः परोक्ष एवं अवधि आदि तीन ज्ञान परमार्थतः प्रत्यक्ष स्वीकृत हैं। वैदिकदर्शन में तीन प्रकार के सत्य कहे गये हैं - प्रातिभासिक सत्य, व्यावहारिक सत्य और पारमार्थिक सत्य है। जैनपरम्परा का निश्चयनय शंकर का पारमार्थिक सत्य और व्यवहारनय व्यावहारिक सत्य है / 286 282. भारतीयदर्शन, पृ. 306 283. भारतीयदर्शन, पृ. 313-314 284. षड्दर्शन समुच्चय, पृ. 403 285. प्रमाण मीमांसा, टिप्पण पृ. 127 286. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग 1, पृ. 31-32