________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [103] रहा है, वह स्वयं ही आत्मा है 24 जहाँ संशय होता है, वहाँ आत्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकारना पड़ता है। जो प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। आत्मा स्वयंसिद्ध है, क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते हैं। सुख-दुःखादि को सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है / 25 जिनभद्रगणि ने आत्मा के अस्तित्व के लिए गुण और गणी का तर्क दिया है। वे कहते हैं कि घटादि जिन वस्तुओं को हम जानते हैं, उनका भी यथार्थ प्रत्यक्ष नहीं होता है, क्योंकि हमें जिनका प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि गुणों का प्रत्यक्ष है। किन्तु घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणो का समूह है जिन्हें हम नहीं जानते है, रूप (आकार) तो उनमें से एक गुण है। जब रूप गुण के प्रत्यक्षीकरण को घट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं और हमें कोई संशय नहीं होता, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष क्यों नहीं मान लेते हैं।26 भारतीय दर्शन में आत्मा के सम्बन्ध में दो मान्यताएं हैं - अद्वैत मार्ग में किसी समय अनात्मा की मान्यता थी और धीरे-धीरे आत्माद्वैत की मान्यता का विकास हुआ। उत्तर मीमांसक वेदान्तियों ने अद्वैतब्रह्म को स्वीकार किया है, उनका कहना है कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन227 अर्थात् इस जगत् के चेतन और अचेतन जितने भी पदार्थ हैं, वे ब्रह्म रूप ही हैं। अतः आत्मा एक ही है और वह अद्वितीय है। जबकि जैन, बौद्ध, सांख्यादि दर्शन में आत्मा के चेतन और अचेतन दोनों रूपों का मौलिक तत्त्वों में स्थान है। पंचाध्यायी के अनुसार स्वसंवेदन द्वारा आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि होती है 28 सभी आत्माएं में अपने को सुखी, दु:खी, निर्धन आदि के रूप में अनुभव करती हैं, यह अनुभव करने का कार्य चेतन आत्मा में ही हो सकता है। इसी प्रकार उपनिषदों में वर्णित आत्मा के स्वरूप में सुख-दुःख की अवस्था को मिथ्या तथा जीव को ब्रह्मांश माना है। जबकि जैन दर्शन में आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व माना गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में आत्मा को कर्ता तथा जाग्रतादि अवस्थाओं, मृत्यु और पुनर्जन्म में एक समान रहने वाला तत्त्व स्वीकार किया गया है / 29 उपनिषदों में आत्मा को शरीर, प्राण,230 इन्द्रिय और मन31 से भिन्न एक चित्स्वरूप कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में उल्लेख है कि आत्मा ही सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है। यह भी कहा गया है कि शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता जितना दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है 32 वेदवादी, सांख्य और वैशेषिक इन तीनों के अनुसार जगत् में पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश तथा आत्मा ये छ: प्रकार के पदार्थ हैं। अतः ये आत्मा को आकाश के समान सर्वव्यापी तथा अमूर्त होने के कारण नित्य रूप में स्वीकार करते हैं, तथा पृथ्वी आदि पंचमहाभूत भी स्वरूप से विनाशी नहीं होने से वे भी नित्य हैं 33 224. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1157 225. डॉ. सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग 1, पृ. 207 226. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1558 227. ब्रह्मसूत्र, उद्धृत - सूत्रकृतांग (1.1.1.9-10) विवेचन, पृ. 24 228. पंचाध्यायी (उत्तरार्द्ध), 2.5 229. बृहदारण्यकोपनिषद, 4.4.3 230. प्रश्नोपनिषद् 3.3 231. केनोपनिषद्, 1.4.6 232. उत्तराध्ययन सूत्र अ. 20 गाथा 37, 48 233. सूत्रकृतांगसूत्र. प्रथम अध्ययन, गाथा 15, पृ. 32