________________ [104] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन वैदिक काल में भी आत्मा अर्थात् चेतन तत्त्व को जानने की जिज्ञासा हुई थी - 'यह मैं कौन हूँ? मुझे इसका पता नहीं चलता। 234 जैनदर्शन में आत्मा को असंख्यात प्रदेशी एवं शरीर परिमाण माना है। जीव द्रव्य के प्रदेशों की विशेषता यह है कि, वह बड़े या लघु जिस प्रकार का शरीर प्राप्त हुआ हो, उसी के अनुसार जीव के प्रदेश संकुचित या विस्तृत होते हैं। इसीलिए चींटी और हाथी में प्रदेशों की संख्या समान होते हुए भी चींटी में उन आत्म-प्रदेशों का संकोच हुआ है तथा हाथी में उन आत्म-प्रदेशों का विस्तार हुआ है। जैन दर्शन में आत्मा अस्तिकाय (प्रदेशों का समूह) द्रव्य माना गया है 35 जैन दार्शनिक अन्य दार्शनिकों के समान आत्मा को निरवयव नहीं मानकर अवयव सहित भी मानते हैं। इन्हीं अवयवों को प्रदेश36 कहते हैं। उमास्वाति ने आत्मा को असंख्यात प्रदेशी कहा है 37 अतः आत्मा असंख्यात चेतन प्रदेशों का पिण्ड है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य-योग, मीमांसक आत्मा को आकाश के समान व्यापक मानते हैं, जबकि जैनदर्शन के अनुसार आत्मा आकाश के समान व्यापक नहीं है। प्रत्येक आत्मा को सुखदुःखादि की अनुभूति अलग-अलग होती है। एक के सुखी होने पर सबको सुखी होना चाहिए और एक के दु:खी होने पर सबको दु:खी होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता है। अतः आकाश के समान एक मानेंगे तो बंध, मोक्ष में अव्यवस्था उत्पन्न होगी। अतः आत्मा व्यापक नहीं है। न्याय, वैशेषिक, बौद्ध, पूर्वमीमांसक और जैनदर्शन में आत्माओं को अनेक स्वीकार किया गया है। प्रत्येक आत्मा का अपना-अपना अस्तित्व है। जैन दर्शन में आत्मा का उल्लेख निश्चय दृष्टि और व्यवहार दृष्टि से किया गया है। निश्चयदृष्टि की अपेक्षा 'एगे आया' अर्थात् आत्मा एक है।38 अर्थात् स्वरूप की अपेक्षा से सिद्ध और संसारी की आत्मा में कोई भेद नहीं है। व्यवहार दृष्टि से स्थानांग सूत्र के आठवें स्थान में आत्मा के आठ भेद बताये हैं, यथा द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य आत्मा। जैनदर्शन में अनन्त आत्माएं स्वीकार की गई हैं। उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है कि 'जीवाश्च 239 इस सूत्र में बहुवचनान्त होने से भी यही सिद्ध होता है कि आत्माएं अनेक हैं। जैन, बौद्ध और सांख्य दर्शन के मत में विश्व के मूल में केवल एक चेतन अथवा अचेतन तत्त्व नहीं, अपितु चेतन एवं अचेतन ऐसे दो तत्त्व हैं। जैनदर्शन में उन्हें जीव और अजीव कहा है तो सांख्यदर्शन में इनको पुरुष और प्रकृति तथा बौद्धदर्शन में इन्हीं को नाम और रूप कहा गया है 40 सांख्य एवं शांकर वेदान्त आत्मा को अपरिणामी (कूटस्थ) मानते हैं। आत्मा को अपरिमाणी (कूटस्थ) मानने का तात्पर्य यह है कि आत्मा में कोई विकार, परिवर्तन या स्थिति में अन्तर नहीं होता है अर्थात् आत्मा पुण्य-पाप का भोक्ता और कर्ता नहीं होता है। जैनदर्शन आत्मा को परिणामी नित्य मानता है। जैन विचारकों ने यह माना है कि सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, अतः आत्मा भी उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है। कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार आत्मा की पूर्वपर्याय का विनाश होता है और उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है, किन्तु द्रव्य-दृष्टि से जो पूर्व पर्याय में था, वही उत्तर पर्याय में रहता है।41 234. ऋग्वेद, 1.164.37 235. द्रव्यसंग्रह, गाथा 23 236. वक्ष्यमाणलक्षण: परमाणुः स यावति क्षेत्रे व्यवतिष्ठते स प्रदेश इति व्यवह्रियते।- सर्वार्थसिद्धि, अ. 5, सू. 8 237. असंख्येया: प्रदेशा धर्माधर्मेकजीवानाम्। - तत्त्वार्थ सूत्र, अ. 5, सू. 8 238. स्थानांग सूत्र, स्थान 1 239. तत्त्वार्थ सूत्र, अ. 5, सू. 3 240, दलसुख मालवडिया, आत्ममीमांसा, पृ. 4 241. पंचास्तिकाय, गाथा 17