________________ [102] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन शीलांकाचार्य के अनुसार पांचों इन्द्रियों के विषय अलग-अलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का ही ज्ञान करती है, जबकि पांचों इन्द्रियों के विषयों का एकत्रीभूत रूप में ज्ञान करने वाला अन्य कोई अवश्य है और वह आत्मा है 14 राजेन्द्रसूरि ने आत्मा को परिभाषित करते हुए कहा कि 'अतति इति आत्मा' अर्थात् जो गमन करती है, वही आत्मा है अर्थात् जो विभिन्न गतियों या योनियों में जन्म ग्रहण करती है, वह आत्मा है।15 'जीव है या नहीं?' यह संशय चेतना का ही रूप है। चेतना और उपयोग आत्मा का स्वरूप है,216 शरीर का नहीं। संशय आत्मा में ही उत्पन्न हो सकता है, शरीर में नहीं। 'मैं नहीं हूँ' ऐसी प्रतीति किसी को भी नहीं है, यदि आत्मा को अपना अस्तित्व अज्ञात होता तो 'मैं नहीं हूँ' ऐसी प्रतीति होनी चाहिए।17 परन्तु होती नहीं। इस प्रकार शंकर ने भी आत्मा के अस्तित्व के लिए स्वत: बोध को प्रबल तर्क के रूप में स्वीकार किया है। उनके अनुसार सभी को आत्मा के अस्तित्व में भरपूर विश्वास है, कोई भी ऐसा नहीं कहता है कि मैं नहीं हूँ 18 आलाप-पद्धति में आचार्य देवसेन ने आत्मा के छह गुणों का उल्लेख किया है, यथा - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व, अमूर्तत्व / यहाँ ज्ञान-दर्शन के लिए उपयोग शब्द का प्रयोग किया जाता है। अतः जहाँ उपयोग है, वहाँ जीवत्व है, जहाँ उपयोग नहीं, वहाँ जीवत्व का अभाव है। उपयोग (ज्ञान-दर्शन) जीव का ऐसा लक्षण है, जो सिद्ध एवं संसारी सभी जीवों में पाया जाता है। अतः ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। न्यायदर्शन में अहं प्रत्यय को ही आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है।20 उद्द्योतकर के अनुसार आत्मा के अस्तित्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यतः विवाद नहीं है। यदि विवाद है तो आत्मा के स्वरूप के संबंध में है। क्योंकि किसी के मत में शरीर ही आत्मा है, किसी के मत में बुद्धि, किसी के मत में इन्द्रिय या मन आत्मा है और किसी के मत में संघात को आत्मा माना है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इन सबसे भिन्न आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।221 विशेषावश्यकभाष्य में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि के लिए निम्न तर्क दिये गये हैं - 1. जीव के अस्तित्व की सिद्धि जीव शब्द से ही होती है, क्योंकि असद् की कोई सार्थ संज्ञा नहीं होती है 22 2. जीव है या नहीं, यह चिंतन मात्र ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है। देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष 223 3. शरीर में स्थित जो यह सोचता है कि मैं शरीर नहीं हूँ, वही जीव है। जीव के अलावा संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है। बिना आत्मा के ऐसे विचार उत्पन्न नहीं हो सकते हैं। जो निषेध कर 214. तेषां च प्रत्येकं स्वविषयग्रहणादन्यविषये चाप्रवृत्तेर्नान्यदिन्द्रियज्ञातमन्यदिन्द्रियज्ञातमन्यदिन्द्रियं जानातीति, अतो मया पञ्चापि विषया ज्ञाता इत्येवमात्मकः। - सूत्रकृतांग टीका, श्रु. 1. अ. 1. उ. 1 गाथा 8 215. अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग 2, पृ. 188 216, उपयोगो लक्षणम्, तत्त्वार्थ सूत्र 2.8, उत्तराध्ययन सूत्र 28.11 217. ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य 1.1.1 218. ब्रह्मसूत्र, शकरभाष्य, 1.1.2 219. प्रत्येकं जीव पुद्गलयोः षट्। - आलाप पद्धति, गुणाधिकार, सू. 12 220. न्यायवार्तिक पृ. 341 221. न्यायवार्तिक पृ. 366 222. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1575 223. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 1571