________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [101] मन के कार्य स्मृति, चिन्तन और कल्पना करना मन का कार्य है। यह इन्द्रिय ज्ञान का प्रवर्तक है अर्थात् मन इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण की गई वस्तु के सम्बन्ध में भी चिन्तन-मनन करता है और उससे आगे भी वह विचार करता है। नंदीसूत्र में मन के कार्य ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श बताये हैं। जब मन इन्द्रिय द्वारा ज्ञात, रूप, रस आदि का विशेष रूप से निरीक्षण आदि करता है तब वह इन्द्रिय की अपेक्षा रखता है। अन्यत्र स्थानों में मन को इन्द्रिय की आवश्यकता नहीं होती है। इन्द्रिय ज्ञान की सीमा पदार्थ तक सीमित है और मन इन्द्रिय और पदार्थ दोनों को जानता है। इन्द्रियाँ केवल मूर्त्तद्रव्य की वर्तमान पर्याय को और वह भी अंश रूप में जानती हैं, जबकि मन मूर्त और अमूर्त्त (रूपी-अरूपी ) पदार्थों के त्रैकालिक अनेक रूपों को जानता है, मन का कार्य विचार करना है। जिसमें इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये और ग्रहण नहीं किये गये सभी विषय आते हैं। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि मन संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के जीवन का एक ऐसा मध्यबिन्दु है, जिसे केन्द्र बनाकर उन जीवों का समग्र जीवन-चक उसके इर्द-गिर्द घूमता है। मानवजीवन का भी वास्तविक आकलन एवं मूल्यांकन मन के द्वारा ही होता है। मनुष्य-जीवन का यह केन्द्रीय तथ्य है। जैसा मन होता है वैसा ही मनुष्य बन जाता है अर्थात् "जैसा मन, वैसा जीवन।" मन अशांत तो जीवन अशांत, मन शांत तो जीवन शांत। मन दुःखी तो जीवन दुःखी, मन सुखी तो जीवन सुखी। मन भोगी तो जीवन भोगी, मन योगी तो जीवन योगी। मन रागी तो जीवन रागी, मन वीतरागी तो जीवन वीतरागी। उपनिषद् में भी कहा है कि "मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" इस प्रकार सम्पूर्ण उत्थान और पतन का कारण मन ही होता है। आत्मा यह ज्ञान तीसरा और प्रमुख्य साधन है। परोक्ष ज्ञान में तो आत्मा को इन्द्रिय और मन का सहयोग उपेक्षित है, किन्तु प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही सीधा आत्मा से होता है। ___ भारतीय दार्शनिकों ने दृश्यमान् जगत् के समस्त पदार्थों को चेतन और अचेतन दो भागों में विभाजित किया है। चेतन में ज्ञान, दर्शन, सुख, स्मृति, वीर्य आदि गुण पाये जाते हैं और अचेतन में स्पर्श, रस, गन्ध आदि गुण पाये जाते हैं। चेतन तत्त्व को आत्मा का मुख्य लक्षण माना है। चेतना का अर्थ है उपयोग। उपयोग का अर्थ है ज्ञान और दर्शन। अतः आत्मा चेतन है अर्थात् आत्मा ज्ञानदर्शन स्वरूप है। आत्मा को प्रमाता भी कहा जाता है। प्रमाता का अर्थ है कि वह विश्व के सभी पदार्थों का प्रामाणिकता से ज्ञान (बोध) करने वाला है। आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा होता है। ज्ञाता का अर्थ है जानने वाला और द्रष्टा का अर्थ है - देखने वाला। भारतीय दर्शन में चर्वाक दर्शन को छोड़कर शेष जितने भी दर्शन हैं, वे सभी किसी न किसी रूप में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए विस्तार से उसके स्वरूप आदि का उल्लेख करते हैं। आचारांग सूत्र में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा है 12 कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार13 में आत्मा को परिभाषित करते हुए कहा है कि न आत्मा में रूप है, न रस है, न स्पर्श है, और न गन्ध है। यह संस्थान और संहनन से रहित है। राग-द्वेष, मोह आत्मा के स्वरूप नहीं हैं। यह आत्मा शुद्ध, बुद्ध और ज्ञानमय है। 211. आचार्य तुलसी, नंदीसूत्र, सूत्र 62, पृ. 112 212. जेण विजाणति से आता। - आचारांगसूत्र, 1.5.5 213. समयसार, गाथा 50-51