________________ [100] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन प्राप्ति उससे नहीं होती है, किन्तु स्त्यानगृद्धि निद्रा के उदय में वर्तमान प्राणी मांस-भक्षण व दांत आदि उखाड़ने की क्रियाओं को करते हुए, चूंकि वह गाढ़ निद्रा में परवश होने के कारण सभी क्रियाओं को स्वप्न की तरह मानता है। इसमें व्यंजनावग्रह हो सकता है, हम इसका भी निषेध नहीं करते हैं। लेकिन वह व्यंजनावग्रह मन का नहीं होकर श्रोत्रेन्द्रियादि चार प्राप्यकारी इन्द्रियों का होता है, चक्षु और मन का नहीं 104 8. जिनभद्रगणि विषय के साथ अस्पृष्ट मन को व्यंजनावग्रह रूप नहीं मानते हैं और इसका खंडन करते हुए कहते हैं कि हम श्रोत्रेन्दियादि चार इन्द्रियों के शब्दादि ग्राह्य विषयों से सम्बन्धित व्यंजनों के ग्रहण को व्यंजनावग्रह के रूप में मानते हैं। किन्तु मन का व्यंजनावग्रह नहीं होता है, क्योंकि व्यंजनावग्रह तभी संभव है जब ग्राह्य वस्तु का स्पर्श (ग्रहण) होता हो, किन्तु मनोद्रव्यों का जो ग्रहण (स्पर्श) होता है, वह ग्राह्य वस्तु के रूप से नहीं होता है, लेकिन करण के रूप में होता है। चिन्तन द्रव्य रूप मन ग्राह्य (विषय) नहीं है, किन्तु ग्रहण (जिसके द्वारा शब्दादि अर्थ का ग्रहण किया जाता है) रूप है अर्थात् मन अर्थ ज्ञान में प्रमुख कारण होता है अतः मन अर्थग्रहण का साधन है, परन्तु ग्राह्य विषय नहीं है। इसलिए मन का व्यंजनावग्रह नहीं होता है। दूसरा जो आपने शरीर में स्थित मन में स्पृष्ट होने से व्यंजनावग्रह माना है वह भी उचित नहीं है क्योंकि यहाँ पर प्राप्यकारिता और अप्राप्यकारिता का चिन्तन बाह्य पदार्थ की अपेक्षा से ही किया गया है।205 9. पूर्वपक्ष - चक्षु और मन अप्राप्यकारी है तो सभी विषयों का ग्रहण क्यों नहीं करते हैं। जैसे चक्षु अप्राप्यकारी है तो वह तीनों लोकों में रही हुई वस्तुओं को क्यों जान नहीं पाती है? क्योंकि सभी वस्तु नेत्र के लिए तो अप्राप्त ही है? इसलिए यह प्राप्यकारी है। उत्तरपक्ष - जिनभद्रगणि कहते है कि केवलज्ञानादि से ज्ञेय रूप अनन्त गहन पदार्थों के विद्यमान होने पर भी किसी मन्दमति का मन मोहग्रस्त होने पर जानने में सक्षम नहीं होता है, उसी प्रकार अप्राप्यकारी होते हुए भी मन से सभी विषयों का ग्रहण नहीं होता है। पूर्वपक्ष - कर्मों के उदय से, या स्वभाव के कारण मन के द्वारा सभी पदार्थों का ग्रहण नहीं होता है। उत्तरपक्ष - यही कारण चक्षु इन्द्रिय में भी लागू होता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं कि चक्षु के अप्राप्यकारी होने से सभी विषयों का ग्रहण हो। अतः मन के समान चक्षु इन्द्रिय भी कर्म-क्षयोपशम से अथवा स्वयं का जितना या जैसा अनुग्रह (सहयोग) रूप सामर्थ्य है उससे अधिक होने पर विषय का ग्रहण नहीं करती है।206 इस प्रकार चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है, यह सिद्ध होता है। जिनदासगणि ने मनोद्रव्य का ग्रहण होना मानकर मन का भी व्यंजनवाग्रह स्वीकार किया है। हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजय ने जिनभद्रगणि का समर्थन किया है 20 अकलंक ने मन के अप्राप्यकारी के स्थान पर उसका अनिन्द्रियत्व सिद्ध किया है 09 विद्यानंद ने भी इसका विस्तार से वर्णन किया है 10 204. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 234-236 205. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 237-240 206. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 245-249 207. 'जग्गतो अणिंदियत्थवावारेऽवि मणसो जुज्जते वंजणावग्गहो' - नंदीचूर्णि पृ. 65 208. हारिभद्रीय पृ. 66, मलयगिरि पृ. 171, जैनतर्कभाषा पृ. 11 209. तत्त्वार्थराजवार्तिक पृ. 1.19.4-7 210. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.19.7 और 15