________________ [90] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन "मणिज्जमाणे मणे" मनन करते समय ही मन होता है अर्थात् मनन से पहले और मनन के बाद मन नहीं होता है। जैसेकि बोलने से पहले और बोलने के बाद भाषा नहीं होती है, लेकिन जब तक बोलते हैं तभी भाषा होती है। वैसे ही मन के लिए भी समझना चाहिए। जिससे विचार किया जा सके वह आत्मिक शक्ति मन है और इस शक्ति से विचार करने में सहायक होने वाले एक प्रकार के सूक्ष्म परमाणु भी मन कहलाते हैं। पहले को भाव मन और दूसरे को द्रव्य मन कहते हैं। मन के प्रकार जैन दर्शन के अनुसार मन चेतन द्रव्य और अचेतन द्रव्य के गुण के अनुसार उत्पन्न होता है। अतः जैनदर्शनानुसार मन दो प्रकार का होता है - 1. चेतन (भाव मन) और 2. पौद्गलिक (द्रव्य मन)। भाव मन जीवमय है और अरूपी है तथा द्रव्य मन पुद्गलमय है और रूपी है। द्रव्यमन और भावमन ऐसे भेद आगमों में नहीं मिलते हैं। भगवतीसूत्र के 12वें शतक के पांचवें उद्देशक में रूपी-अरूपी के वर्णन में कृष्णादि छह लेश्याओं के द्रव्य और भाव से भेद किये गए हैं। द्रव्य लेश्या अष्टस्पर्शी रूपी और भाव लेश्या अरूपी है। वहाँ पर मन, वचनादि योगों का भी वर्णन है। यदि के लेश्या की तरह मनोयोग द्रव्य और भाव भेद होते तो इसका भी उल्लेख होता। किन्तु वहाँ (भगवतीसूत्र, शतक 12, उद्देशक 5) पर मन के द्रव्य और भाव रूप से भेद नहीं किये गये हैं। वहाँ मन को चतुःस्पर्शी रूपी ही बताया है। भगवती सूत्र शतक 13 उद्देशक 7 "आया भंते! मणे, अन्ने मणे? गोयमा! नो आया मणे, अन्ने मणे" इत्यादि पाठ में मन को आत्मा से भिन्न ही स्वीकार किया है। यहां भी भाव मन की अपेक्षा से मन को आत्मा रूप स्वीकार नहीं किया गया है। इस आगम पाठ से भी मन के द्रव्य और भाव भेद नहीं होते हैं, ऐसा ही स्पष्ट होता है। यद्यपि निक्षेप पद्धति से मन के भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ये चार निक्षेप होते हैं। किन्तु यहाँ पर मन का जो भाव निक्षेप किया है, वह काय योग से गृहीत मनोवर्गणा के पुद्गलों को मनोयोग के रूप से प्रवर्ताना भाव मन कहा गया है। मनोयोग में परिणत करने के पहले और बाद में जो छोड़े हुए पुद्गल हैं, वे भाव मन के कारण एवं कार्य होने से द्रव्य मन कहलाते हैं। तथापि एकेन्द्रियों में जो भाव मन कहा जाता है, वह इस भाव निक्षेप से गृहीत नहीं होता है। इसलिए निक्षेप पद्धति से मन के द्रव्य, भाव भेद आगमिक होते हुए भी एकेन्द्रियों में माने जाने वाले द्रव्य और भाव भेद आगमों में नहीं मिलते हैं। आगम में मन को पौद्गलिक ही माना है। भावमन मानने वाले भाव मन को अपौद्गलिक मानते हैं। नन्दीचूर्णि में निक्षेप पद्धति से मन के द्रव्य और भाव भेद किये हैं। मनः पर्याप्ति नाम कर्म के उदय से जब मनोद्रव्य को ग्रहण करके मन रूप में परिणत किया जाता है, तो वह द्रव्य मन कहलाता है। 61 फिर क्रियावन जीव के मन का परिणाम भाव मन होता है। इसका यह अर्थ है कि मनोद्रव्य के आलम्बन से जीव के मन का व्यापार 'भाव मन' कहलाता है। 62 विशेषावश्यकभाष्य में बताया है कि द्रव्यमन मनोवर्गणा के पुद्गलों से बना हुआ है। यह मन का भौतिक पक्ष है। साधारण रूप से इसमें शरीरस्थ सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक रचना तन्त्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा 160. पं. सुखलाल संघवी, तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन), पृ. 54 161. मणपजतिनामकम्मोदयतो जोग्गे मणोदव्वे घेतुं मणत्तेणं परिणामिया दव्वा दव्वमणो भण्णइ इति। - द्रव्य लोक प्रकाश, सर्ग 3, पृ. 163 162. जीवों पुण मणपरिणाम किरियावंतो भावमणो, किं भणियं होइ मणदव्वालंबणो जीवस्स मणणवावारो भावमणो भण्णइ। - द्रव्य लोक प्रकाश, सर्ग 3, पृ. 163