________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [91] भावमन है। दूसरे शब्दों में आत्मा से मिली हुई चिन्तन-मनन रूप चैतन्य शक्ति ही भाव मन है। जीव में ज्ञानावरणीय कर्म के तथाविध क्षयोपशम से जो मनन करने की लब्धि होती है तथा मनन रूप उपयोग चलता है, ये दोनों 'भावमन' कहलाते हैं तथा उस मनन क्रिया में जो सहायक है तथा जिसका निर्माण मन:पर्याप्ति के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण कर के हुआ है, वह 'द्रव्य मन' है। यह मन आत्मा से भिन्न है और अजीव है, किन्तु वह जीव के ही होता है, अजीव के नहीं। यह बात भगवती सूत्र के शतक 13 उद्देशक 7 से स्पष्ट है।63 तेरहवें गुणस्थान में मन, वचन आदि योगों का निरोध कर केवली चौदहवें गुणस्थान में जाते हैं। अतः वे 'अयोगी' कहे जाते हैं। अयोगी होकर ही आत्मा मोक्ष जाती है, अतः मोक्ष में सिद्ध भगवान् के मन नहीं होता है। मलयगिरि के अनुसार - मन:पर्याप्तिनामकर्म के उदय से मन के प्रायोग्य वर्गणाओं को ग्रहण कर जो मनरूप में परिणत होने वाला द्रव्य है, वह द्रव्यमन है। द्रव्यमन के सहारे जीव का जो मन परिणाम है, वह भाव मन है।64 द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं होता। किन्तु भाव मन के बिना द्रव्यमन हो सकता है। जैसे भवस्थ केवली के द्रव्यमन होता है, भावमन नहीं।165 द्रव्य मन की अपेक्षा भाव मन की अधिक शक्ति और सत्ता है। भाव मन की सजगता का ही सुपरिणाम है कि जीव भोगी से रोगी और योगी भी बनता है। संयोगी, वियोगी, निर्योगी ये सब भाव मन की देन हैं। भाव मन से ही नर नारायण, आत्मा परमात्मा बनता है। इसलिए भाव मन में जिस प्रकार मनन होता है - विचारधाराएं चलती हैं, उसी के अनुसार द्रव्य मन भी परिवर्तित होता रहता है। यदि भाव मन प्रशस्त होता है, तो द्रव्य मन भी प्रशस्त वर्ण आदि वाला होता है। यदि भाव मन अप्रशस्त होता है, तो द्रव्य मन भी अप्रशस्त वर्ण आदि वाला होता है। क्योंकि मनुष्य के चारों ओर एक आभामण्डल होता है। आभामण्डल के अस्तित्व को विज्ञान भी स्वीकार करता है। आभामंडल व्यक्ति की चेतना के साथ-साथ रहने वाला पुद्गलों और परमाणुओं का संस्थान है। चेतना व्यक्ति के तैजस शरीर को सक्रिय बनाती है। जब तैजस शरीर सक्रिय होता है तब वह किरणों का विकिरण करता है। यह विकिरण ही व्यक्ति के शरीर पर वर्तुलाकार घेरा बना लेता है। यह घेरा ही आभामंडल है। आभामंडल व्यक्ति के भाव मंडल (चेतना) के अनुरूप ही होता है। भावमंडल जितना शुद्ध होता है, आभामंडल भी उतना ही शुद्ध होगा। भाव मंडल मलिन होगा तो आभामंडल भी मलिन होगा। अतः इससे सिद्ध होता है कि भाव मन से ही द्रव्य मन परिवर्तित होता है। दूसरी अपेक्षा से पौद्गलिक मन भावात्मक मन का आधार होता है। जैसे वस्तु की संख्या एवं गुणवत्ता के आधार पर बाजार-भाव होता होता है, वैसे ही द्रव्य मन के आधार पर भाव मन भी विचारों की न्यूनाधिकता, उत्थान-पतन, संकोच-विस्तार से युक्त होता है अर्थात् द्रव्य मन के बिना भावात्मक मन अपना कार्य नहीं कर सकता। उसमें अकेले में ज्ञान शक्ति नहीं होती है, क्योंकि भाव मन विचारात्मक होता है। मन मात्र ही जीव नहीं है, परन्तु मन जीव भी है, जीव से सर्वथा भिन्न नहीं है, अर्थात् इसे आत्मिक मन कहते हैं। लब्धि और उपयोग उसके दो भेद हैं। प्रथम मानस ज्ञान का 163. आया भंते ! मणे, अन्ने मणे? गोयमा! नो आया मणे, अन्ने मणे। जहा भासा तहा मणे वि जाव नो अजीवाणं मणे। - युवाचार्य मधुकरमुनि, भगवती सूत्र भाग 3, श. 13. उ. 7, सूत्र 10-11, पृ. 329 164. मन:पर्याप्तिनामकर्मोदयो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तद्रव्यरूपं मनः। द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः। - मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 174 165. द्रव्यमनोऽन्तेरण भावमनसोऽसम्भवात्, भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः।-मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ.174