________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [89] ... मन का स्वरूप परोक्ष ज्ञान में इन्द्रिय के अलावा मन भी प्रमुख साधन है। अतः सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में मन के अस्तित्व को स्वीकार किया है तथा उसका स्वरूप निरूपित किया है। मन का अस्तित्व न्यायसूत्रकार का मन्तव्य है कि एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते। इस अनुमान से वे मन की सत्ता स्वीकार करते हैं।51 वात्स्यायन के अनुसार स्मृति ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता है और विभिन्न इन्द्रियों तथा उनके विषयों के रहते हुए भी एक साथ सबका ज्ञान नहीं होता, इससे मन का अस्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है। 52 अन्नम्भट्ट के मतानुसार सुख आदि की प्रत्यक्ष उपलब्धि का साधन मन को माना गया है। जैनदर्शन के अनुसार संशय, प्रतिभा, स्वप्न, ज्ञान, वितर्क, सुख, दुःख, क्षमा, इच्छा आदि मन के अनेक लिंग हैं।154 उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि परोक्ष ज्ञान का इन्द्रियों के अलावा अन्य दूसरा साधन भी होना चाहिए जिससे कि ज्ञान होता है और वह दूसरा साधन मन ही है। मन का स्वरूप __ मनन करना मन है अर्थात् जिसके द्वारा मनन किया जाता है वह मन है। मनोयोग्य मनोवर्गणा से गृहीत अनन्त पुद्गलों से निर्मित मन द्रव्य मन है। द्रव्य मन के सहारे जो चिन्तन किया जाता है, वह भावमन (आत्मा) है।155 धवला के अनुसार जो भी भली प्रकार से (ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम आदि पूर्वक) जानता है, उसे संज्ञा या मन कहते हैं।56 / द्रव्यसंग्रह की टीकानुसार - मन अनेक प्रकार के संकल्प विकल्पों का जाल है। जिसमें स्मृति, कल्पना और चिंतन हो वह मन है। जैसे जो अतीत की स्मृति, भविष्य की कल्पना और वर्तमान का चिंतन करता है, वह मन है। अत: जिसमें त्रैकालिक ज्ञान की क्षमता हो, वह मन है। जब स्मृति, कल्पना और चिंतन नहीं होते हैं तब मन नहीं होता है। जब मन होता है तब तीनों आवश्यक हो जाते हैं। "मनुतेऽर्थान् मन्यन्तेऽर्थाः अनेनेति वा मनः"758 अर्थात् जो पदार्थों का मनन करता है या जिसके द्वारा पदार्थों का मनन किया जाता है, वह मन कहलाता है। जैसे अर्थ के भाषण के बिना भाषा की प्रवृत्ति नहीं होती, उसी प्रकार अर्थ के मनन के बिना मन की प्रवृत्ति नहीं होती। दिगम्बर ग्रन्थ धवला के अनुसार मन स्वतः नोकर्म है। पुद्गल विपाकी अंगोपांग नाम कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्य मन है तथा वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रिय कर्म क्षयोपशम से जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भाव मन है। अपर्याप्त अवस्था में द्रव्य मन के योग्य द्रव्य की उत्पत्ति से पूर्व उसका सत्त्व मानने से विरोध आता है, इसलिए अपर्याप्त अवस्था में भाव मन के अस्तित्व का निरूपण नहीं किया गया है।159 151, न्यायसूत्र, 1.1.16 152. न्यायसूत्र, वात्स्यायनभाष्य 1.1.16 153. सुखाद्युपलब्धिसाधनमिन्द्रियं मनः। - तर्कसंग्रह 154. संशयप्रतिभास्वप्नज्ञानेहासुखादिक्षमेच्छादयश्च मनसो लिंगानि। - सन्मतिप्रकरण टीका, काण्ड 2 155. मण्णं व मन्नए वाऽणेण मणो तेण दव्वओ तं च। तज्जोग्गपुग्गलमयं भावमणो भण्णए मंता। - विशेषा० भाष्य, गाथा 3525 156. सम्यक् जानातीति संज्ञं मनः। - षटखण्डागम (धवलाटीका) पुस्तक 1, सूत्र 1.1. 4, पृ. 152 157. नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते। - बृहत् द्रव्यसंग्रह, प्रथम अधिकार, गाथा 12 की टीका, पृ. 24 158. श्री यशोविजयगणि, जैनतर्कभाषा, पृ. 11 159. धवलाटीका, भाग 1, सूत्र 1.1.35, पृ. 259-260