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________________ [86] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ___ पहले समय में ग्रहण किये हुए भाषा द्रव्यों का निसर्ग पहले समय में नहीं होता है, उनका निसर्ग दूसरे समय में ही होता है। इसी प्रकार दूसरे समय में ग्रहण किये हुए तीसरे समय में निकलते हैं, तीसरे समय के चौथे समय में निकलते हैं। इस प्रकार ग्रहण करने एवं त्याग करने की अपेक्षा यह अन्तर रहित है, क्योंकि ग्रहण किये हुए का त्याग उसी समय में नहीं होता है, किन्तु समय की अपेक्षा यह निरन्तर होता है, दूसरे आदि सभी समयों में त्याग ही होता है। अतः पहले समय में ग्रहण ही होता है, अन्तिम समय में मात्र निसर्ग ही होता है और बीच के समयों में ग्रहण भी होता है और त्याग भी।140 कालमान भाषा द्रव्य का ग्रहण, ग्रहण किये हुए का त्याग और भाषा ये इन तीनों का अलग-अलग रूप से जघन्य काल एक समय का है, लेकिन ग्रहण और त्याग (वचन व्यापार की अपेक्षा) का युगपत् काल जघन्य दो समय का है। भाषा का बोलना निसर्ग ही है, अर्थात् भाषा द्रव्य का त्याग ही भाषा है, इसका काल जघन्य से एक समय प्रमाण है। लेकिन ग्रहण और त्याग यह उभय रूप से भाषा नहीं कहलाती है। क्योंकि उसका जघन्य काल दो समय का है। इसलिए भाषा का काल मान एक समय का ही है। भाषा द्रव्य का ग्रहण, ग्रहण किये हुए का त्याग और भाषा इन तीनों का तथा ग्रहण और त्याग का युगपत् उत्कृष्ट काल अलग-अलग रूप से अन्तर्मुहूर्त है। इस उत्कृष्ट काल में जो महान् प्रयत्न वाला होता है, उसका अन्तर्मुहूर्त छोटा होता है और जो अल्पप्रयत्न वाला होता है, उसका अन्तर्मुहूर्त बड़ा होता है।47 भाषा के पुद्गलों द्वारा व्याप्य क्षेत्र जिनभद्रगणि के अनुसार जीव औदारिकादि शरीर से भाषा के द्रव्य को ग्रहण करता है और मुक्त करता है। मुक्त भाषा के पुद्गल द्रव्य लोक पर्यन्त व्याप्त होते हैं। यहाँ विरोधाभास प्रतीत होता है क्योंकि पूर्व में यह माना गया है कि बारह योजन से अधिक दूरी से आये शब्द मन्दपरिणाम वाले होने से जीव को बराबर सुनाई नहीं देते हैं। यदि बारह योजन से अधिक दूरी वाले भाषा के द्रव्य आते हैं तो श्रोत्रेन्द्रिय के विषय की मर्यादा में रहे हुए द्रव्यों में वासना का जो सामर्थ्य होता है, वैसा ही सामर्थ्य इन्द्रिय-विषय की मर्यादा के बाहर के पुद्गल द्रव्यों में होता है कि नहीं? द्रव्य का सामर्थ्य सम्पूर्ण लोक की व्याप्ति पर्यन्त है, तो कितने समय में भाषा के द्रव्य सम्र्पूण लोक को व्याप्त करते हैं? इत्यादि शंकाओं का उत्तर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण देते हुए कहते हैं कि किसी भाषा के पुद्गल चार समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं और लोक के असंख्यातवें भाग में भाषा का असंख्यात्वां भाग में व्याप्त होता है। 42 मंदप्रयत्न वाला वक्ता अभिन्न और महाप्रयत्न वाला वक्ता भेदकर भाषा द्रव्यों को निकालता है। मंदप्रयत्न वाले वक्ता के द्वारा बोली गई भाषा के जिन अभिन्न द्रव्यों को निकाला जाता है, वे द्रव्य असंख्यात अवगाहना वर्गणा तक जा कर भेद को प्राप्त हो जाते हैं, फिर संख्यात योजन तक आगे जाकर नष्ट हो जाते हैं। यही बात प्रज्ञापना सूत्र के भाषापद में भी कही है।43 महाप्रयत्न वाले वक्ता के द्वारा बोली गई भाषा के जो द्रव्य मुक्त होते हैं, वे सूक्ष्म और बहुत होने से अनन्त गुण 140. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 368-370 141, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 371-372 142. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 378-380 143. जाई अभिण्णाई णिसिरति ताई असंखेज्जाओ ओगाहणवग्गणाओ गंता भेयमावजंति, संखेजाई जोयणाई गंता विद्धंसमागच्छन्ति। - प्रज्ञापनासूत्र पद 11, पृ. 85
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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