________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [85] को अलग-अलग समय में ही सुनाई देता है, लेकिन समयादि काल का भेद अतिसूक्ष्म होने से प्रतीत नहीं होता है। जिस प्रकार शब्द पुद्गलों के लिए कथन किया, उसी प्रकार गंध पुद्गल, रस पुद्गल और स्पर्श पुद्गलों के विषय में भी समझना चाहिए। यथा-जो पुरुष गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गल की समश्रेणी में होता है, वह मिश्रित गंध, रस और स्पर्श पुद्गलों को जानता है और जो विषमश्रेणी में होता है, वह नियम से पराघात (वासित) गंध, रस और स्पर्श पुद्गलों को जानता है।36 भाषा पुद्गल का ग्रहण और विसर्जन काययोग से भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण किया जाता है और वचन योग से उन्हें बाहर निकाला जाता है। प्रथम समय में भाषा पुद्गल ग्रहण किए जाते हैं और दूसरे समय में भाषा पुद्गल छोडे जाते हैं। यह क्रम तीसरे, चौथे आदि समयों में भी इसी प्रकार चलता है अर्थात् ग्रहण करने के मध्य एक समय का अन्तराल होता एवं बोलते समय भी एक समय का अन्तराल होता है। पुरुष के अनन्तर पुरुष पुरुषान्तर कहलाता है, उसी प्रकार एक समय से अनन्तर समय एकान्तर कहलाता है अर्थात् एक समय में ग्रहण करता है और एक समय में छोड़ता है। शंका - भाषा के पुद्गलों का काययोग से ग्रहण करना तो उचित है, लेकिन वचन योग से छोड़ना कैसे संभव है? वचन योग क्या है? क्या व्यापार रूप वाणी ही वचन योग है अथवा उसके छोड़ने के कारण काययोग ही वचनयोग है? इसका समाधान यह है कि मनोयोग और वचनयोग, काययोग के ही विशेष भेद मनोयोग और वचनयोग हैं। शरीर व्यापार से ग्रहण किये हुए भाषा पुद्गल समूह के आश्रय से उत्पन्न तथा भाषा के विसर्जन (निसर्ग) के कारण रूप जीव का व्यापार वचन योग है। काया के व्यापार से ही ग्रहण किये हुए मनोद्रव्य के समूह के आश्रय से मनोद्रव्यों के चिन्तन के कारण जो व्यापार विशेष उत्पन्न होता है, वह मनोयोग कहलाता है। इसलिए ऐसा कहने में कोई दोष नहीं है। 37 इस प्रकार काययोग के ही (उपाधि भेद से) तीन प्रकार हैं। काययोग से ही द्रव्य ग्रहण होता है, अत: जिसके काययोग नहीं है, उसके अलग से वचन योग और मनोयोग नहीं है। क्योंकि वचनयोग और मनोयोग के पुद्गलों का ग्रहण काययोग से ही होता है। इस अपेक्षा से तो श्वासोच्छ्वास की तरह ही मनोयोग और वचनयोग भी काययोग ही हैं। इसलिए श्वासोच्छ्वास की तरह उनका समावेश भी काययोग में ही होना चाहिए। यदि ऐसा संभव नहीं होता है तो श्वासोच्छ्वास को भी अलग से योग मानना चाहिए। इसका समाधान यह है कि व्यवहार की सिद्धि के लिए जैसे वचन योग और मनोयोग का फल कायिकक्रिया से भिन्न प्रगट होता है, वैसे श्वासोच्छ्वास योग का फल कायिकक्रिया से भिन्न प्रतीत नहीं होता है। इसलिए श्वासोच्छ्वास को काययोग से भिन्न नहीं माना है।38 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए कहा है कि कुछ आचार्य एक-एक समय के अन्तर से ग्रहण और निसर्ग (शब्द रचना) मानते हैं, लेकिन यह कथन सही नहीं है, क्योंकि अन्तर-अन्तर से ग्रहण करने के समयों में सभी को सुनाई नहीं देता है। साथ ही 'अणुसमयविरहियं निरंतरं गिण्हइ' अर्थात् प्रतिसमय विरह रहित निरन्तर ग्रहण करता है, इस आगम पाठ के साथ भी विरोध आता है। जैसे प्रतिसमय ग्रहण होता है, वैसे ही प्रतिसमय निसर्ग भी होता है, क्योंकि जिसका पहले समय में ग्रहण होता है उसका दूसरे समय में निसर्ग भी होता है।139 136. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 351-354 138. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 359-364 137. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 355-358 139. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 365-367