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________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [83] 2. उत्सेधांगुल - इस अवसर्पिणी काल के पांचवें आरे का आधा भाग अर्थात् साढे दस हजार वर्ष बीत जाने पर उस समय के मनुष्य के अंगुल को 'उत्सेधांगुल' कहते हैं। अथवा इसका प्रमाण अनुक्रम से परमाणु, त्रसरेणु, रथरेणु, बालाग्र, लींख (लिक्षा)-जूं (जूका)-यव (जव), प्रत्येक के आठ-आठ गुणा करने पर होता है। इस उत्सेध अंगुल से दुगुना वीर का आत्म-अंगुल होता है। उत्सेधांगुल से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों की अवगाहना मापी जाती है। 3. प्रमाणांगुल - यह अंगुल सब से बड़ा होता है। इसलिए इसे प्रमाणांगुल कहते हैं। उत्सेधांगुल से प्रमाणांगुल हजार गुणा बड़ा होता है। इस अंगुल से रत्नप्रभा आदि नरक, भवनपतियों के भवन, कल्प (विमान), वर्षधर पर्वत, द्वीप आदि की लम्बाई, चौडाई, ऊँचाई, गहराई और परिधि नापी जाती है। शाश्वत वस्तुओं को नापने के लिये यह प्रमाणांगुल काम में लिया जाता है।30 शंका - कुछ आचार्यों का मानना है कि नारकी आदि के शरीरादि का प्रमाण उत्सेधांगुल से जाना जाता है, तो यहाँ शरीरादि में आदि शब्द से इन्द्रिय तथा उसके विषय का प्रमाण भी आ गया है। क्योंकि शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियों के विषय को ग्रहण करवाने में शरीर सहायक होता है, इसलिए इन्द्रियों के विषय का परिमाण उत्सेधांगुल से ही नापना चाहिए। जिनभद्रगणि कहते हैं कि अन्यत्र आगम में सभी स्थलों पर उत्सेधांगुल से शरीर की अवगाहना के नापने का ही उल्लेख है, इन्द्रियादि के विषयों का नापने का उल्लेख नहीं है। यदि उत्सेधांगुल से इन्द्रिय के विषय का परिमाण नापेंगे तो पांच सौ धनुष की अवगाहना वाले भरतचक्रवर्ती का आत्मांगुल रूप प्रमाणांगुल है, वह उत्सेधांगुल से हजार गुणा बड़ा है, जबकि भरतचक्रवर्ती की अयोध्या नगरी आदि आत्मांगुल से 12 योजन लम्बी है, यदि सभी को उत्सेधांगुल से नापेंगे तो इससे तो वह अनेक हजार योजन प्रमाण की हो जायेगी। श्रोत्रेन्द्रिय की विषय सीमा रूप 12 योजन को उत्सेधांगुल से गिनेंगे तो हजारों योजन दूर से आये हुए शब्द को तो बहुत से नगर वाले एवं स्कंधावार वाले सुन ही नहीं सकते हैं, लेकिन यह शब्द सारी नगरी और स्कंधावार में सुनाई देते हैं। इसलिए इन्द्रियों का विषय आत्मांगुल से ही ग्रहण करना चाहिए।31 इसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय 12 योजन, चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय एक लाख योजन से अधिक तथा शेष घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय का उत्कृष्ट विषय नौ योजन का है। ये पांचों इन्द्रियां अपने-अपने उत्कृष्ट विषय क्षेत्र से आये हुए शब्द-रूप-गंध-रस और स्पर्श रूप अर्थ को ग्रहण करती हैं। इससे अधिक दूर से आये हुए शब्द और गंधादि विषय मंदपरिणाम वाले होने से इन्द्रियों के विषय नहीं बनते हैं।132 इन्द्रियों का जघन्य विषय - चक्षुरिन्द्रिय का जघन्य विषय अंगुल के संख्यातवें भाग जितना है, क्योकि अत्यधिक नजदीक में रहे हुए अंजन-सली-मेल आदि को चक्षु इन्द्रिय देख नहीं सकती है, जबकि शेष इन्द्रियों का जघन्य विषय अंगुल के असंख्यातवें भाग है। इतने जघन्य क्षेत्र से आये शब्दादि अर्थ को श्रोत्रेन्द्रियादि ग्रहण करती है। क्षेत्र से मन के विषय का कोई परिमाण नहीं, क्योंकि वह नियम रहित दूर अथवा नजदीक मूर्त-अमूर्त सभी वस्तु को केवलज्ञान के विषय के समान ग्रहण करता है। जो पुद्गल मात्र में ही नियत रूप से बन्धा हुआ नहीं होता है, उसका विषय-परिमाण नहीं। जैसे केवलज्ञान का विषय परिमाण नहीं है, वैसे ही मन पुद्गल मात्र में ही नियत रूप से बन्धा हुआ नहीं होने से उसका 130. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 340 131. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 341-344 132. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 345-347
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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