________________ [82] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन को ग्रहण कर लेता है। वैसे ही श्रोत्र (कान) इंद्रिय के साथ शब्द पुद्गलों का मात्र स्पर्श रूप सम्बन्ध होते ही श्रोत्र शब्द को सुन लेती है, क्योंकि श्रोत्र उपकरण द्रव्य-इंद्रिय के पुद्गल बहुत पटु हैं तथा शब्द के पुद्गल सूक्ष्म, बहुत और अधिक भावुक होते हैं। अतः श्रोत्रेन्द्रिय पटुतर होती है। ___ घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय अनुक्रम से स्वविषय भूत गंध-रस-स्पर्श वाले बद्ध और स्पृष्ट द्रव्यों को विषय रूप में ग्रहण करती हैं। अतः स्वप्रदेश के साथ घ्राणेन्द्रियादि द्रव्य के अत्यंत गाढ़ संबद्ध होने पर ग्रहण कर सकती हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि विषयभूत गंधादि द्रव्य शब्द द्रव्य की अपेक्षा अधिक स्थूल हैं और अभावुक (वासित करने के स्वभाव से रहित) हैं। अतः घ्राणेन्द्रियादि विषय को ग्रहण करने में श्रोत्रेन्द्रिय की अपेक्षा अपटू है। हरिभद्रसूरि ने इसे विशेष प्रकार से समझाते हुए कहा है कि यहाँ बद्ध का अर्थ है - आत्मप्रदेशों के द्वारा ग्रहण होना। जैसे - लोह अग्नि को उसका स्पर्श होने से ही नहीं पकड़ता, पर जब अग्नि, लोह में प्रविष्ट होती है, तभी लोह अग्नि को पकड़ता है, वैसे ही घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन-उपकरण-द्रव्येन्द्रियों के साथ, गंध, रस और स्पर्श पुद्गलों का स्पर्शमात्र होने से घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन लब्धि भावेन्द्रियाँ गंध, रस और स्पर्श को नहीं जानती, पर जब घ्राण, जिह्वा और स्पर्श उपकरण द्रव्य इंद्रियों के प्रदेशों से, गन्ध, रस और स्पर्श के पुद्गल परस्पर एकमेक हो जाते हैं (एक दूसरे में प्रभावित हो जाते हैं) तभी घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन भावेन्द्रियाँ, गन्ध, रस और स्पर्श को जान सकती हैं।128 चक्षुरिन्द्रिय योग्य देश में रहे हुए स्वविषय भूत रूप को अस्पृष्ट, अप्राप्त और असम्बद्ध (स्पर्श के बिना) ही ग्रहण करती है, तथा अयोग्य देश में रहे हुए सौधर्म देवलोकादि अथवा दीवार आदि के व्यवधान युक्त घटादि वस्तु को ग्रहण नहीं कर सकती है। क्योंकि चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं और वे स्पर्श के बिना ही वस्तु को ग्रहण करते हैं। जैसेकि दर्पण किसी पदार्थ को स्पर्श किए बिना ही (केवल सामने आने से ही) पदार्थ के प्रतिबिम्ब को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार चक्षु उपकरण द्रव्येन्द्रिय से पदार्थ को स्पर्श किये बिना ही (केवल चक्षु के सामने आने से ही) चक्षु रूप को जान लेती है। इसलिए वह सबसे अधिक पटुतम होती है।29 शंका - यदि चक्षु अप्राप्त रूप को ग्रहण करती है, तो लोकांत से पहले जो भी वस्तु है द्रष्टा उनको देख सकता है, क्योंकि अप्राप्त का विषय सर्वत्र समान है। समाधान - आगम में चक्षुइन्द्रिय का विषय परिमाण आत्मांगुल से एक लाख योजन से अधिक बताया है, इसलिए सभी जगह अप्राप्तकारीपना समान होते हुए भी योग्य देश में रहे हुए ही रूप को देखती है, अयोग्य देश में रहे हुए रूप को नहीं देखती है। अंगुल प्रमाण का स्वरूप यहाँ चक्षुरिन्द्रिय का विषय आत्मांगुल से बताया है, अत: जिनभद्रगणि प्रसंगानुसार तीन प्रकार के अंगुलों के स्वरूप का उल्लेख करते हैं। अंगुल के तीन भेद हैं - 1. आत्मांगुल - जिस काल में जो मनुष्य होते हैं उनके अपने अंगुल को 'आत्मांगुल' कहते हैं। काल के भेद से मनुष्यों की अवगाहना में न्यूनाधिकता होने से इस अंगुल का परिमाण भी परिवर्तित होता रहता है। जिस समय जो मनुष्य होते हैं उनके नगर, कानन, उद्यान, वन, तडाग (तालाब), कूप (कूआ) मकान आदि उन्हीं के अंगुल से अर्थात् आत्मांगुल से मापे जाते हैं। 128. हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. 68-69 129. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 336-339