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वे सभी मत और वर्गों के आत्मीय बन सके हैं। मैनें उन्हें सदा जागृत और तत्पर पाया है। शैथिल्य कहीं देखेने में नहीं आया। (1) ऐसे गुरू के स्नेह एवं वात्सल्य की छत्रछाया में मुनि नथमल ने जैनागम 'दशवैकालिक' से विद्याध्ययन का श्रीगणेश किया। 'दशवैकालिक' की भाषा प्राकृत है। अपने अध्ययन प्रारंभ के संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ जी लिखते हैं – 'मेरा अध्ययन बहुत मंथर गति से चला। पूरे दिन में उसके दो-तीन श्लोक कंठस्थ कर पाता था। इस मंथर गति सेमुनि तुलसी भी प्रसन्न नहीं थे और पूज्य कालूगणीभी प्रसन्न नहीं थे। ..... थोड़े दिनों बाद वह कठिनाई भी दूर हो गई, मेरी गति तेज हुयी और मैं प्रतिदिन आठ-दस श्लोक कंठस्थ करने लगा। अब सब प्रसन्न थे। (42)
पूज्य कालूगणी के वात्सल्य एवं गुरू तुलसी के आत्मानुशासन से शनैः शनैः मुनि नथमल के लिए प्राकृत एवं संस्कृत भाषा की जटिलता सहजता में परिवर्तित होने लगी। दर्शन, कविता और विचार अभिव्यक्ति के लिए मचलने लगे। दीक्षागुरू कालूगणी के पट्टारोहण दिवस के पश्चात् जैसे मुनि नथमल के विचारों की गंगा संस्कृत भाषा में प्रवहमान होने लगी।
आचार्य महाप्रज्ञ का साहित्य विराट एवं विपुल है। वे संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी व राजस्थानी भाषा के प्रकाण्ड पण्डित हैं। पैंसठ-सत्तर वर्ष पूर्व जैनाचार्यों की भाषा या तो संस्कृत थी या प्राकृत। ये दोनों भाषाएँ युगानुरूप जनमानस को आंदोलित करने में सक्षम नहीं हो पा रही थी। आचार्य तुलसी इस बात को समझ चुके थे कि हिन्दी भाषा की सुबोधता जनकल्याण एवम् धर्म विस्तार की दृष्टि से उत्प्रेरक होगी। वे अपने शिष्यों से कहते कि 'आज समाज की चेतना को झकझोरने वाला साहित्य नहीं के बराबर है। इस अभाव को पूरा हुआ देखने के लिए अथवा साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में जो शुचिपूर्ण परम्पराएँ चली आ रही है उनमें उन्मेषों के नये स्वस्तिक उकेरे हुए देखने के लिए मैं बेचैन हूँ। मेरे धर्मसंघ में सुधी साधू साध्वियाँ इस दृष्टि से सचेतन प्रयास करें, और कुछ नई सम्भावनाओं को जन्म दें। (43) गुरू की इस मनोकामना को पूरा करने के लिए मुनि नथमल तथा अन्य साधु-साध्वियाँ हिन्दी भाषा का कोष, सत्य, अहिंसा, त्याग, परमार्थ, ज्ञान तथा परिपूर्ण चारित्र्य से समृद्ध करने लगे।
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