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कहानियों के द्वारा आसानी से किया जा सकता है। कहानियाँ सुनना एवं बाल सखाओं के साथ खेलना बालकों की सहजात वृत्ति है, जिज्ञासा उसका सहज स्वभाव है। माँ, बुवा अथवा नौकरानी जब उन्हें कोई कहानी सुनाती तब उनका जिज्ञासु मन कहानी के रहस्य को जानने के लिए बेचैन हो उठता। एक बार नौकरानी कहानी सुना रही थी कि – 'पहले पत्थर भी बोलते थे, घासफूस तिनके भी बोलते थे। गाय, भैंस आदि पशु पक्षी भी मनुष्य की भाषा बोलते थे। फिर एक ऐसा जमाना आया कि सबने बोलना बन्द कर दिया। केवल मनुष्य के पास ही बोलने की शक्ति रह गई। इस कहानी का उल्लेख आचार्य श्री ने अपने 'आत्मकथ्य' में किया है। उस समय इस कहानी का प्रभाव उस बालमन पर क्या पड़ा? इस संबंध में वे लिखते हैं कि 'इस प्रसंग को सुनकर मेरा बालमन आंदोलित हो उठा। मैंने पूछा-क्या अब पत्थर बोल सकते हैं? क्या गाय अपने दुख-सुख की बात मनुष्य को बता सकती हैं ? इस प्रश्न का उत्तर मुझे नहीं मिला पर मानसिक उद्वेलन ने अज्ञात रहस्य को खोजने की वृत्ति जगा दी, ऐसा स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं । (40) इस प्रकार उनमें अज्ञात रहस्य को जानने की यह जिज्ञासा बचपन में ही उत्पन्न हो गयी।
जब ये बालसखाओं के साथ खेलते तो उस खेल में भी सत्य का अन्वेषण करते। कभी पानीमें बनने वाले बुलबुले को देखकर उसकी निर्माण प्रक्रिया को जानने का प्रयास करते, तो कभी दहलीज पर लोहे की छड़ के प्रहार से उससे
उत्पन्न ध्वनि को सुनने का प्रयास करते। सभी बालचेष्टाओं में उनकी खोजी
वृत्ति ही सक्रिय रहती।
संयोग बहुत प्रबल होता है। इतना प्रबल कि न तो उसे टाला जा सकता है और न ही रोका। ये ग्यारहवें वर्ष में कदम रख रहे थे। मन में मुनि बनने की साध थी, माँ साध्वी बनना चाहती थी। संयोग योग में बदल गया। मुनि छबील एवं मुनि मूलचन्द की प्रेरणा से इनके हृदय में भक्ति की अजस्त्र धारा उमड़ पड़ी। परिणाम स्वरूप 29 जनवरी सन् 1931 को सरदार शहर (राजस्थान) में तेरापंथ धर्मसंघ के आठवें आचार्य पूज्यपाद कालूगणी से माता और पुत्र ने विधि-विधान पूर्वक मुनि दीक्षा ली। इस प्रकार बालक नथमल ने मुनि
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