SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्थापना संभव नहीं है। (31) कच्छ, महाकच्छ एवं उनके चार हजार साथी 'संकल्प-विकल्प' के प्रतीक हैं। ऋषभ के साथ मुनि बनने का संकल्प' उन्हें 'समता' के मार्ग पर ले जाता है किन्तु साधना में भूख-प्यास की पीड़ा उन्हें व्याकुल कर देती है। साधना में भूख और प्यास, मन की चंचलता बाधक है। मन डिगता है, पलायन का भी विचार आता है। अन्ततोगत्वा कंद-मूल, फूल-पत्र को भूख शांति का आधार बनाकर सभी साधना में रत होते हैं। और धीमे-धीमे उनका चिंतन दर्शन बन जाता है। ___ माँ मरूदेवा संपूर्ण कषायों से मुक्त 'भक्ति' का प्रतीक है। 'भक्ति' से मन अपने आराध्य के प्रति समर्पित होता है। जिस पुत्र के प्रति माँ के मन में अगाध ममता, वात्सल्य का भाव था उसी पुत्र की आभा को देखने पर मन के संपूर्ण विचार तिरोहित हो जाते हैं। वे आत्मस्थ हो जाती हैं। क्षपक श्रेणी में पहुँच जाती हैं। जैन दर्शन में - 'मोक्ष मार्ग की ओर अग्रसर जीवों के मोह कर्म को संपूर्ण रूप से नष्ट करने की प्रक्रिया को क्षपक श्रेणी कहते हैं । (32) मोह, ममता, लोभ का विनाश होते ही 'समता' का जागरण होता है जिससे मोक्ष अथवा कैवल्य की प्राप्ति होती है। भरत महत्वाकांक्षा एवं सांसारिक लिप्सा में उन्मत्त वैज्ञानिक संसाधनों (दिव्य आयुध) से परिपूर्ण युद्ध और संघर्ष में रत् है। यह भौतिक सत्य है, जिसे सर्वस्व मान मन उसी में रमण करता है। विश्व का संहार, संबंधो से इंकार की भावना जगत के इसी सत्य को मानने से उत्पन्न होती है। किन्तु इससे शांति नहीं मिलती। शांति के लिए महत्वाकांक्षा, भोग-विलास का शमन आवश्यक है। आत्म चिंतन से उसकी पूर्ति सम्भव है। व्यक्ति जब भीतर देखता है और अपने जीवन में एक-एक कार्यों का चिंतन करता है, तब उसमें बदलाव आना प्रारंभ हो जाता है, आत्मा का द्वार खुल जाता है, बाह्य जगत तब निस्सार लगने लगता है। यह भोग से योग की ओर बढ़ने की प्रक्रिया है। भरत भी भोग से योग की ओर बढ़े। अस्तु निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि 'ऋषभायण' महाकाव्य में रूपक के द्वारा अनेकान्त दर्शन के आलोक में पदार्थ सत्य के साथ ही साथ 'आत्मा' के सत्य को स्पष्ट किया गया है। 1681
SR No.009387
Book TitleRushabhayan me Bimb Yojna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilanand Nahar
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy