________________
': न युद्ध, वहाँ मात्र 'समता' है, उस राज्य में सांसारिक लिप्सा का कोई स्थान नहीं
मेरा राज्य विराट् अलौकिक, जहाँ न इच्छा का लवलेश। युद्ध और संघर्ष विवर्जित, नहीं क्लेश का कहीं प्रवेश। ममता समता से परिवृत्त है, नहीं दृष्ट सुख-दुख का द्वन्द्व । रात दिवस का चक्र नहीं है, सारी घटनाएँ निर्द्वन्द्व। ऋ.पृ.-200.
पुरूषार्थ अन्य को भी पुरूषार्थी बनाता है। पुरूषार्थ का कार्य है स्वयं का कल्याण करते हुए जनकल्याण। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष इसके सोपान हैं। मन, वाणी, कर्म से समर्पित व्यक्ति ही इस मार्ग पर चल सकता है। अट्ठानबे भाईयों द्वारा अलौकिक मार्ग का वरण इसी समर्पण भाव के कारण हो सका है।
'लोकेषणा' व्यक्ति में बलवती होती ही है। 'नमि' और 'विनमि' अंत तक इस लोकेषणा को त्याग नहीं पाते। युद्ध में पराजित होने के बाद संधि के पश्चात् वे राज्य लिप्सा में ही रत रहते हैं, जिसका आशय यह है कि सामान्य मानव पदार्थ जगत से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। परिणामतः संसार के संपूर्ण क्लेशों विषमताओं को भोगता रहता है। उसकी मुक्ति नहीं हो पाती।
कच्छ, महाकच्छ एवं उसके साथी 'अस्थिर मन' अथवा अन्नमय कोष के प्रतीक है। इनमें त्याग का अभाव है। 'भूख' 'प्यास' का सहज त्याग संकल्पवृत्ति से होता है। जिसने भूख, प्यास को त्याग दिया, उसका ही त्याग सांसारिक विकारों से दूर हो सकता है। अत्यागी व्यक्ति साधना पथ पर बढ़ नहीं सकता। किन्तु वह धीरे-धीरे प्रयास करने पर त्यागवृत्ति से पूरित होने पर 'आलोक' पथ का राही बन सकता है। कच्छ, महाकच्छ भी अपने साथियों सहित विलम्ब से ही सही दर्शन पथ की ओर अग्रसर हुए :
तप की चर्या ने, तापस वर्ग बनाया, धीमे-धीमे चिंतन, दर्शन बन पाया।
ऋ.पू.-114
जैन दर्शन में "समता' को अत्यधिक महत्व दिया गया है। 'समता' का अर्थ है आत्मा और आत्मा का अर्थ है 'समता'। जो आत्मा है वह सामायिक है और जो सामायिक है वह आत्मा है। आत्मा को स्वीकार किये बिना 'समता' की
[671