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बाहुबली का करूण विलाप, उबल रहा मन का अनुताप। बोला मृदु वच सचिव सुधीर, क्यों प्रभु इतने आज अधीर। ऋ.पृ.-139.
ऋषभ द्वारा दीक्षा ग्रहण एवं गृहत्याग के पश्चात् पिता के प्रति भरत की करूण भावना निम्नलिखित पंक्तियों में वर्णित है :--
करूणा कर हे! करूणा करके, इक बार निहार निहाल करो। यह बंधन है पुर–वास प्रभो! तुम मुक्त हुए सुख से विचरो। ऋ.पृ.-104.
अद्भुत रस :
विस्मय भरा आश्चर्य स्थायी भाव से अद्भुत रस की व्युत्पत्ति होती है। इस रस में अलौकिक अथवा आश्चर्योत्पादक वस्तु के कार्य की ओर इंगित किया जाता है। ऋषभ द्वारा साधना में भोजन का त्याग आश्चर्य बोधक है।
चक्र चला वार्ता का क्या प्रभु, इतने दिन भूखे प्यासे? किसने फेंके ये मायावी, इंद्रजाल भावित पाशे ? ऋ.पृ.-132.
वात्सल्य रस :
पुत्र अथवा छोटों के प्रति स्नेह, ममत्व से वात्सल्य रस की उत्पत्ति होती है। महाकाव्य के नौवें सर्ग में पुत्र ऋषभ के प्रति माँ की चिंता वात्सल्य भाव से परिपूर्ण है। माँ द्वारा पुत्र को भोजन कराते समय जिस वात्सल्य की अनुभूति होती है। उसकी स्मृति का रेखांकन करती हयी माँ मरूदेवा भरत से कहती है :
याद आ रहे हैं वे वासर, भोजन स्वयं कराती थी। अपने हाथों से परोसती, मैं दीपक, मैं बाती थी।
ऋ.पृ.-148.
पुत्र की चिंता से माँ मरूदेवा विव्हल हो जाती हैं, उनकी विव्हलता का वर्णन निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है :
आज अकेला कौन दूसरा, सुख-दुख में उसका साक्षी ? पदचारी, पहले रहता था, चढ़ने को प्रस्तुत हाथी। ऋ.पृ.-148.
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