________________
संयम के द्वारा, त्याग के द्वारा इंद्रियनिग्रह के द्वारा, योग के द्वारा इन मनोविकारों का शमन कर परमानन्द की अनुभूति करता है। ऋषभ को आत्मानंद की अनुभूति हो जाने के पश्चात् - अहं, क्रोध, माया, मोह-मति को संकेत कर अमूर्त रूप से जो वार्तालाप करते हैं, उससे यह प्रमाणित होता है कि साधक के मन में उक्त कषायों के रहते हुए चिन्मय-दीप नहीं जल सकता।
किया अहं ने घोर विरोध, और किया मति से अनुरोध। क्यो जागृत करती हो आज, सुप्त सिंह को हे अधिराज! जाग गया यदि परमानन्द, हो जाओगी तुम निस्पंद। सार नहीं होगा संसार, अहं बनेगा सिर का भार। अतिक्रांत है मेरा क्षेत्र, उद्घाटित अभ्यंतर नेत्र। प्रज्ञा का है अपना देश, वर्जित उसमें अहं-प्रवेश। क्रोध! बंधुवर! सुन लो मान!, खोजो अपना-अपना स्थान। माये! देवि! सुनो आह्वान, कृपया शीघ्र करो प्रस्थान। ऋ.पृ.-142.
क्रोध मौन हो गया अरूप, अहंकार ने बदला रूप। माया का अस्तित्व विलीन, फिर भी लोभ रहा आसीन। ऋ.प.-143
सेनानायक मोह कराल, सारा उसका मायाजाल। शेष हो गया अंतर्द्वन्द्व, अंतर्जगत् हुआ निर्द्वन्द्व ।
ऋ.पृ.-144.
इंद्रिय मन पर पूर्ण विराम, अन्तश्चित् सक्रिय अविराम। शब्द अगोचर अनुभव-गम्य, केवल की है कथा अगम्य। ऋ.पृ.-145.
उक्त मनोविकारिक संवाद से जैन मत के 'कैवल्य ज्ञान' की धारणा पुष्ट होती है। 'केवल ज्ञान' की उपलब्धि योग की एक जटिल प्रक्रिया के पश्चात् होती है। इस अवस्था में स्थापित होने पर सभी पदार्थों के ज्ञान की क्षमता आ जाती है। केवल ज्ञान के संबंध में आचार्य तुलसी लिखते हैं कि - "इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा के द्वारा मूर्त और अमूर्त सभी पदार्थों की सब पर्यायों का साक्षात्कार करना केवलज्ञानोपयोग है। (15)
केवल ज्ञान हो जाने पर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है। अन्तश्चित् अहर्निश
371