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का परिचायक है। दूसरी ओर भातृत्व भाव संसार के सभी सम्बन्धों से श्रेष्ठतम है। भरत - बाहुबली से युद्ध नहीं चाहते । भातृत्व भाव को वे दांव पर नहीं लगाना चाहते। मंत्री उनके मनोभावों को समझ कूटनीति का कुटिल पाशा फेंकता है, जिससे भरत टूट जाते हैं, अन्ततः युद्ध को आमंत्रण मिलता है :
मंत्री :- देश और विदेश में यह बात अति विख्यात है ।
भरत से भी बाहुबलि का, बाहुबल अवदात है । जनपदों को जीतने में, शक्ति का व्यय क्यों किया? क्या जलेगा चक्रवर्ती, पीठ का स्नेहिल दिया? बाहुबलि को जीतने का, स्वप्न क्यों देखा नहीं? शेष सब नृप बिंदु केवल एक है रेखा यही । बाहुबलि की नम्रता में, उचित ही संदेह है उचित है आरोप तेरा, एकपक्षी स्नेह है ज्येष्ठता का भूमि- नभ में, सर्वदा सम्मान है । अनुज के व्यवहार में तो, झलकता अभिमान है ।
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भरत :
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समर चरम विकल्प उसको, स्थान यदि पहला मिले । तो मधुर संबंध - तरू पर, सुरभि सुम कैसे खिले ? दूत जाए बाहुबलि के पास मम संदेश ले
सुलझ जाए गांठ यदि वह, बात पर ही ध्यान दे ।
ऋ. पृ. - 225.
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ऋ. पृ.227. भरत का मन भातृत्व प्रेम से मण्डित है किंतु राजनीतिक परिस्थितियाँ और मंत्री की मंत्रणा उनके स्नेह पर भारी पड़ती है, और वे चाहते हैं कि बाहुबलि शरणागत हों - इसलिए दूत भेजते हैं। यहां राजा के रूप में भरत का कमजोर पक्ष उजागर हुआ है। इसके पूर्व भी भरत की महत्वाकांक्षा अट्ठानबे भाईयों एवं मुँह बोले भाई नमि - विनमि के प्रति व्यक्त हो चुकी है। महत्वाकांक्षा से व्यक्ति अंधा हो जाता है, रिश्ते टूटे या बने महत्वाकांक्षी के लिए उसका कोई स्थान नहीं। जिसने भी भयावह महत्वाकांक्षा पाली, उसका पतन सुनिश्चित है । हुआ भी यही ।