SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनप्रति:- सरसता है भोग में, क्यों रोग मानें आर्यवर! त्याग नीरस है निषेधक, हंत! कैसे हो प्रवर ? ऋ.पृ.-96. ऋषभ :- इक्षु रसमय अनासेवित, सरसता सप्राण है। और सेवित विरस बनता, मात्र त्वक् निष्प्राण है। ऋ.पृ.-97 भोग की सम्मोहिनी से, चक्षु की द्युति रूद्ध है।। आवरण को दूर करने, चेतना प्रतिबुद्ध है। ऋ.पृ.-96. ऋषभ और जनप्रतिनिधि के संवाद से इस विचार को पुष्टि मिलती है कि भोग की वितृष्णा से योग का जन्म होता है। पातंजलि के अनुसार - 'चित्तवृत्ति निरोधः योगः' - अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। रोध 'अति' का त्याग से कथन का आशय भी प्राकारान्तर से यही है कि जब तक विषय, वासना, ईच्छा की अति का संयम से, त्याग से अवरोध नहीं होगा, तब तक योग का जन्म संभव नहीं। मनुष्य की मति और गति पर नियति का नियंत्रण है या यक्ति का, कोई नहीं जानता। जो शब्द श्रेय का संदेश देते हैं, वे ही प्रेय में प्रीति जगा देते हैं। भरत और मंत्री के मध्य इस छोटे से संवाद ने ममत्व को अहं से आवृत्त कर दो भाइयों को युद्ध भूमि में लाकर खड़ा कर दिया।14) यहाँ मंत्री और भरत का संवाद दृष्टव्य है :मंत्री :- सत्य कहना चाहता पर, प्रेम में विश्वास है। बन्धुता में विघ्न बनना, कुटिलता का पाश है। भरत :- बाहुबलि है अजित मंत्री! क्यों यही तात्पर्य है। बंधुवर से युद्ध करना, क्या नहीं आश्चर्य है? ऋषभपुत्रों में कलह हो, मान्य मुझको है नहीं। चक्र रूठे, रूठ जाए, बन्धु तो वह है नहीं। ऋ.पृ.-224. यदि मंत्री राजनीति, कूटनीति में दक्ष नहीं होगा तो राज्य विकास में उसका योगदान नगण्य होगा। राजनीति अथवा कूटनीति मधुर से मधुर सम्बन्धों को तोड़ उसे शत्रुता में परिवर्तित कर देती है। मंत्री द्वारा बाहुबली का नाम लिए बिना बंधुता में अवरोध बनने की बात कहना उसकी वाणी कौशल [34]
SR No.009387
Book TitleRushabhayan me Bimb Yojna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilanand Nahar
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy