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नाभि - है सुन्दर प्रस्ताव तुम्हारा, सचमुच मन को भाता है।
बोलो, जटिल समय में कैसे, इस उलझन को प्रश्रय दें। ऋ.पृ.-45.
स्वस्ति-स्वस्ति, पर एक समस्या, युगल हमारा जीवन है। सहजन्मा है सुमंगला यह, देखें, इसका क्या मन है ?
ऋ.पृ.-46.
सुमंगला- पिता! परम संतोष मुझे यदि, इस बाला का मंगल हो।
उसको पार लगाना होगा, जिसके सम्मुख जंगल हो। ऋ.पृ.-46.
मानवता की दृष्टि से उक्त संवाद उन्नयनकारी है। नारी की प्रकृति नारी के प्रति ईष्यालु होती है किन्तु यहाँ तो जीवन के विकट मार्ग को सरल बनाने हेतु करूणा, सहानुभूति का मार्दव भाव सुमंगला में दिखाई देती है। संपूर्ण आगत् जगत के लिए सुमंगला के त्याग का यह अनुपम संदेश है।
भोग और त्याग, 'लोक' और 'अध्यात्म' जीवन के भाग हैं। भोग, लोक की ओर और त्याग अध्यात्म की ओर प्रवृत्त करता है। ऋषभ और जनप्रतिनिधि का संवाद भोग और त्याग के पक्ष को रूपायित करता हुआ त्याग में ही विश्राम पाता है जिसे निम्नलिखित संवाद में देखा जा सकता है :
ऋषभ :- चाहते तुम राज्य की, अनुशास्ति मैं करता रहूँ। जनप्रतिनिधि :- है जहां प्रभु छत्रछाया, कुशल-मंगल है वहीं।
ऋ.पृ.-94. ऋ.पृ.-95.
ऋषभ :- भोग बढ़ता जा रहा है, और सुविधावाद भी।
जानता कोई नहीं जन, त्याग का अनुवाद भी। नियति है यह भोग की, उसका जहाँ उत्कर्ष है। प्रकृति की लीला वहां पर, जनमता संघर्ष है।
ऋ.पृ.-95.
जनप्रतिनिधि :-भोग मानव की प्रकृति है, फिर वहाँ संघर्ष क्यों ? ऋ.पृ.-95. ऋषभ :- प्रकृति में 'अति' विकृति लाती, यह चिरन्तन सत्य है। रोध 'अति' का त्याग से ही, यह सुनिश्चित तथ्य है।। ऋ.पृ.-96
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