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(3) वातावरण की सृष्टि करना। (4) लेखक के उद्देश्य की अभिव्यक्ति करना।(13)
ऋषभायण महाकाव्य में संवादों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसमें प्रयुक्त संवाद कथासूत्र को गतिमयता ही प्रदान नहीं करते, तथ्यों एवं समस्याओं को उजागर कर उसका निदान भी करते हैं। संवादों के द्वारा कवि की वैचारिक अवधारणा पाठक पर अपनी अमिट छाप छोड़ती हुई भविष्य का अद्भुत संकेत देती है। ऋषभ जन्म के पूर्व स्वप्न वृत्त के परिप्रेक्ष्य में माँ मरूदेवा और नाभि का वार्तालाप, कुतूहल एवं जिज्ञासा से परिपूर्ण है। स्वपन दर्शन के पश्चात् हर्षित पत्नी को उपस्थित देखकर नाभि पूछते हैं :
बोलो क्यों आई हो इस क्षण, हर्ष तरंगित कण-कण में
कल्पवृक्ष क्या उग आया है,
जीवन के नव प्रांगण में!
ऋ.पृ.-33.
माँ मरूदेवा मानस पटल पर अंकित स्वप्न बिम्ब को प्रस्तुत करना चाहती है, किन्तु उस दिव्य स्वप्न बिम्ब को वे वाणी के द्वारा व्यक्त करने में असमर्थ हैं - माँ मरूदेवा कहती है :
अनुभव को उपलब्ध न वाणी, वाणी अनुभव शून्य सदा, कैसे व्यक्त करूं अनुभव को, यह क्षण आता यदा-कदा। ऋ.पृ.-34
अनुभूति को शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि अनुभव का संबंध आन्तरिक प्रदेश से है, मर्म से है। वाणी से बाह्य प्रदेश का व्याख्यान होता है। इसलिए जिस दृश्य या भाव की अनुभूति होती है, उसे हूबहू उसी रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। जहाँ नाभि और मरूदेवा के संवाद क्रमशः उनकी जिज्ञासा और हर्ष को व्यक्त करते हैं, वहीं दाम्पत्य जीवन की प्रियता का संदेश भी देते हैं। मृत्यु शाश्वत है, सनातन है प्रियजनों के महावियोग की पीड़ा हृदय के संपूर्ण बांधों को तोड़ महाशोक की अजस्त्र धारा प्रवाहित कर देती है। नर युगल की मृत्यु के पश्चात् सुनन्दा पिता से कहती है : -
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