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महत्वपूर्ण भूमिका है। पितृभक्ति की भावना से ये पूर्ण रूपेण मण्डित हैं । जप, तप का सौंदर्य ही इनके जीवन का सौंदर्य है । अन्ततोगत्वा ऋषभ से दोनों दीक्षा लेकर अध्यात्म मार्ग पर कदम बढ़ाती हुयी आत्मसाक्षात्कार करने में सफल होती है। (8) अट्ठानबे पुत्र :
ऋषभ के अट्ठानबे पुत्रों की कथानक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका हैं । पिता का पूर्णरूपेण प्रभाव इन पर दिखाई देता है । भरत द्वारा अयाचित युद्ध का संकट उपस्थित हो जाने पर वे पिता के संबोध से युद्ध से विरत हो आत्मज्ञान की साधना में लीन हो जाते हैं ।
इस प्रकार उक्त पात्रों के अतिरिक्त कच्छ, महाकच्छ, कुबरे, मुनिगण, धरण, श्रेयांस, उद्यानपाल ययक, आयुधशाला, रक्षक - शमक, पनिहारिन, मेघमुख, नियोगी, सूर्ययशा, इन्द्र, सेनापति - सुषेण, मंत्री, दूत, प्रहरी आदि पात्रों की योजना महाकाव्य में हुयी है, जो अपनी प्रस्तुति से कथानक को शीर्ष तक पहुँचाने में अपना महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान करते हैं। इस महाकाव्य में मेघमुख, कुबेर, इन्द्र, लोकन्तिक देव आदि दैवी पात्रों की योजना इस बात को बताती है कि आत्म साधना में लीन ऋषभ की सेवा में ये दैवी मात्र रत हैं, जिस कारण जैन धारणाओं की भी पुष्टि होती है ।
संवाद
संवाद नाटक का प्रमुख तत्व है। संवादों के द्वारा जहाँ एक ओर कथानक को गति मिलती हैं। वहीं दूसरी ओर पात्रों के चारित्रिक गुण-दोषों, आचार-व्यवहार, मनोभावों, सामाजिक स्थिति एवं वातावरण की जानकारी भी मिलती है। 'नाटक' महत् उद्देश्य को ध्यान में रख कर सृजित होता है । महाकाव्य का लक्ष्य भी विराट एवं महान होता है। दोनों जीवन की संपूर्णता को व्यक्त करते हैं। नाटक में संवाद के निम्नलिखित चार कार्य होते हैं :
(1) कथावस्तु को अग्रसर करना ।
( 2 ) चरित्र चित्रण में सहायक होना ।
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