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माँ मरूदेवा :
माँ मरूदेवा ऋषभ की ममतामयी माँ है। पुत्र के प्रति एक सहज वात्सल्य या समर्पण भाव जो एक माँ में होता है वह समर्पण इनमें देखा जा सकता है। राज्यत्याग के पश्चात् संयम पथ का राही बनने के पश्चात् ऋषभ के प्रति माँ की ममता देखने योग्य है :
पदत्राण नहीं चरणों में, पथ में होंगे प्रस्तर खंड तपती धरती, तपती बालू, होगा रवि का ताप प्रचंड। ऋ.पृ.-148.
पुत्र को वे उलाहना भी देती है :
माता की आंखो में आँसू, पुत्र निठुर हो जाते हैं।
विस्मृत माँ का पोष हंस शिशु, पंख उगे उड़ जाते हैं। ऋ.पृ.-149.
'स्वप्न' दर्शन के प्रति उनकी निष्ठा एक सहज मानवी की निष्ठा है। वे पतिपरायण एवं करूणा की साक्षात् प्रतिमूर्ति है। पुत्र के देदीप्यमान आभामंडल से प्रभावित हो वे वीतरागता की स्थिति में पहुँच जाती है और 'प्रथम सिद्धा' के रूप में प्रतिष्ठित हो कैवल्य की प्राप्ति करती हैं। महाकाव्य में इनका वर्णन न्यून है किन्तु प्रभाव की दृष्टि से महत् संदेशों से परिपूर्ण है। (5) नामि :
नाभि ऋषभ के पिता हैं। महाकाव्य में इनकी प्रतिष्ठा कुलकर व्यवस्था के अंतिम कुलकर के रूप में की गई है। वे एक आदर्श पिता, आदर्श पति तथा आदर्श कुलकर के रूप में स्थापित हैं। करूणा की भावना से उनका संपूर्ण व्यक्तित्व ओतप्रोत है। अनाथ सुनंदा का पाणिग्रहण संस्कार अपने पुत्र ऋषभ से कराकर वे समाज में आदर्श परंपरा की नींव तो रखते ही हैं, साथ ही अपने सजह एवं
विनम्र स्वभाव का परिचय भी देते हैं। भविष्यदर्शी, आशावादी, स्थिर तथा चैतन्य मति उनके व्यक्तित्व की विशेषता है। महाकाव्य के ऐसे केन्द्र में इनकी योजना हुयी है, जहाँ से एक व्यवस्था का अंत एवं दूसरी व्यवस्था राज्य व्यवस्था का जन्म होता है।
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