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युद्ध शास्त्र के शब्दकोश में, करूणा पद का निपट अभाव । उतना यश जितना वैरी के, उर में होता गहरा घाव ।
सत्रहवें सर्ग मे अहिंसक युद्ध की घोषणा होती है । यह अहिंसक युद्ध प्राकारान्तर से ऋषभ की प्रेरणा का प्रतिफल हैं। यह अहिंसक युद्ध द्वन्द्व युद्ध ही है। जिसका मापदण्ड है- दृष्टि, मुष्टि, सिंहनाद, बाहु एवं यष्टि युद्ध । इस सर्ग में उक्त युद्ध का विशद वर्णन है जिसमें भरत की पराजय होती है।
पूर्ण पराजय व्यक्ति की आत्मा को मथ देता है। ग्लानि, मानसिक पीड़ा की स्थिति में वह नीति, अनीति को नहीं देखता । वैसे भी युद्ध नीतियों पर नहीं महत्वाकांक्षाओं पर लड़ा जाता है। पराजित भरत द्वारा युद्ध समाप्ति के पश्चात् बाहुबली पर चक्ररत्न का प्रक्षेपण उनकी 'कुंठा' और 'पराजयबोध' की पीड़ा को व्यक्त करती है। अंततः चक्ररत्न द्वारा बाहुबली की प्रदक्षिणा एवं कुछ समय के लिए उनके दक्षिण कर में उसकी स्थिति विजयी के प्रति पूर्ण समर्पण है । शक्ति के द्वारा शक्ति का यह नूतन अभिनंदन है । पुनः भरत के कर में चक्र की प्रतिष्ठा उसकी मर्यादा का उत्स है। बदले में बाहुबली का भरत के प्रति घातक मुष्टि प्रहार के लिए दौड़ना क्रिया की प्रतिक्रिया है, जो देवों के हस्तक्षेप से रोकी जा सकी। देवों के तात्विक कथन से बाहुबली का मन उपशांत हो गया :
'अमृत तत्व में पले पुसे हो
फिर कैसे मारक आवेश ?
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ऋ. पृ. 264.
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मुक्ता का आंकाक्षी होगा
मानस सरवर का वर हंस । '
ऋ. पृ. 288.
बाहुबली में चिंतन की दिशा बदल गयी, वे समरभूमि त्याग आत्ममंथन
हेतु जंगल की राह लिए । 'स्थाणुवत' उन्होंने घोर तपस्या की । अहंकार की समाप्ति के पश्चात् ऋषभ की कृपा से उन्हें आत्मतत्व का ज्ञान हुआ ।
इधर बंधु विहीन राज्य भरत को भी उत्पीड़ित करने लगा। ऋषभ के संबोध से उन्होंने भी आत्मा का साक्षात्कार किया :
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