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________________ 'नृपपद' 'दुर्लभ' किंतु क्षणिक है । 'आत्मपद' 'सुदुर्लभ' किन्तु शास्वत है। 'आत्मस्थ' लोक में 'अबंधु' का रूपान्तरण 'बंधु' भाव में होता रहता है। जो प्राणि-प्राणि के प्रति समता के उदय का कारण बनता है :-- इस सुराज्य में बन जाता है, जो अबंधु वह सहसा बंधु । लोकराज्य की महिमा देखो कैसे बनता बंधु अबंधु ? ऋ. पू. - 200 लोक में 'भोग' है, अलोक में 'त्याग' । भोग में 'शेष' है यानी सांसारिक तृष्णा है अभाव है किंतु त्याग में 'अशेष' है, पूर्णता है। आत्म संतुष्टि है । कवि की यह तात्विक दृष्टि प्रशंसनीय है : परम अस्त्र है त्याग अनुत्तर, प्रश्न न कोई रहता शेष भोग शेष की गंगोत्री है, जग में केवल त्याग अशेष ऋ. पू. -202. तेरहवें सर्ग में सुंदरी दीक्षाग्रहण तथा भरत के 'आत्मालोचन' की तात्विक विवेचना की गयी है । इस सर्ग में आत्मा के चैतन्य स्वरूप की मीमांसा तथा भरत के आत्म चिंतन को उभारा गया है। चौदहवें सर्ग के प्रारंभ में भरत द्वारा किये गये आत्मलोचन का प्रभाव दिखाई देता है किंतु इधर चक्ररत्न की नगर में बाहर स्थिर रहने की स्थिति युद्ध की नयी पीठिका तैयार कर रही है । भरत युद्ध नहीं चाहते किंतु सेनापति सुषेण की कूटनीति उन्हें युद्ध करने के लिए तत्पर करती है। भाई से भाई के युद्ध की धारणा कितनी दाहक होती है, उसे इस सर्ग में देखा जा सकता है। बाहुबली स्वतंत्रता के पक्षधर, पराक्रमी व गौरवशाली परम्परा के वाहक हैं, तो भरत - विनाशक भूमि के सर्जक । दूत प्रेषण में यदि एक में अधीनता स्वीकार न करने के बदले युद्ध की पूर्व पीठिका निर्मित हो गयी । पंद्रहवे सर्ग का प्रारंभ बाहुबली के दूत सुवेग के प्रवेश एवं भरत के आत्मनिरीक्षण से प्रारंभ होता है। भरत की बालपन की स्मृति उन्हें बाहुबली की शक्ति से आंतकित कर देती है, वे सोचते हैं - है कौन बाहुबली के बल का विज्ञाता, भ्रूभंग दशा में कौन बनेगा त्राता ? 19
SR No.009387
Book TitleRushabhayan me Bimb Yojna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilanand Nahar
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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