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सृष्टि में हिंसात्मक और अहिंसात्मक दोनों प्रवृत्तियां सक्रिय हैं। दोनों में संघर्ष चल रहा है। जहां हिंसा की प्रबलता से प्राणी का रक्त बहता है वहीं अहिंसा की वर्षा से मानव में प्राणिमात्र के प्रति करूणा, प्रेम, आस्था, विश्वास आदि सुकोमल वृत्तियों का विकास होता है। चक्ररत्न की उत्पत्ति जहां हिंसा का वाहक है, वहीं ऋषभ का संयम मार्ग अहिंसा का। शक्ति का प्रदर्शन हिंसा है, तो उसका मार्गान्तरीकरण अहिंसा।
दसवें, ग्यारहवें सर्ग में दिव्य चक्ररत्नों से सुसज्जित भरत का दिग्विजय अभियान चित्रित है। दिव्य अस्त्र-शस्त्र तथा विशाल सेना से सुसज्जित भरत की विश्वविजय की कामना महत्वाकांक्षी नरेश की कामना है, जो अनचाहे युद्ध को आमंत्रण दे अन्य की स्वतंत्रता बाधित कर रक्तपात करती है। गिरिजनों से युद्ध, नमि–विनमि एवं विश्व के अन्य राजाओं से युद्ध भरत के राज्य विस्तार की लिप्सा को प्रदर्शित करती है।
इतिहास साक्षी है। कालान्तर में विश्व स्तर पर जितने भी युद्ध हुए, रक्तपात या हिंसात्मक गतिविधियाँ हुयी हैं, उसके मूल में महत्वाकांक्षा की घोर लिप्सा ही रही है। मानव द्वारा यह हिंसक युद्ध आज भी जारी है। भीषण मारक यंत्रों का घटाटोप विश्व स्तर पर आयुध रत्नों की भाँति आज भी मानव की प्राण संजीवनी को सोख रहा है।
'महत्वाकांक्षा' तत्काल शांत नहीं होती। रिश्ते संबंध उसके समक्ष तुच्छ होते हैं। बारहवें सर्ग में अठानवे भाईयों को अपनी अधीनता कबूल करने के लिए भरत बाध्य करते हैं। उनकी दो शर्ते हैं – 'सेवा' अथवा 'युद्ध'। ऋषम की प्रेरणा से अठानवें भाई युद्ध से विरत हो, परमपद साधना के लिए प्रेरित होते हैं, जिस कारण भाई-भाई में होने वाला विनाशक युद्ध थम जाता है। ऋषभ कहते हैं :
संबुज्झह किं नो नो बुज्झह! आंको तुम इस क्षण का मूल्य नृप पद दुर्लभ बोधि सुदुर्लभ क्या मणि मणि सब होते तुल्य ? ऋ.पृ.-197
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