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नौवें सर्ग में 'आत्म- सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। इस सर्ग
है ।
में माँ मरूदेवा के रूप में पुत्र के प्रति ममतामयी माँ का वात्सल्य रूप निखरा पुत्र के प्रति माता की चिंता सहज है, सभी भावों से अनूठा भाव मातृत्व भाव ही है :
माँ बछड़े के पीछे चलती, माता केवल माता है।
नवजीवन के आदि काल में, एक मात्र वह त्राता है। ऋ. पृ. 149.
माता जीवन की निर्मात्री और उसके लोक दर्शन का महत्वपूर्ण कारण है। 'शकटमुख' उद्यान में ऋषभ की आभामंडल को देखकर गजारूढ़ माँ मरूदेवा के मन का लौकिक भ्रम जैसे टूट गया, वे तन्मय हो गयी, तत्क्षण उनकी आत्मचेतना जागृत हो गयी
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संबोधन निज को उद्बोधन अपना दर्पण अपना बिम्ब ।
माया का दर्शन विस्मय कर, नभ में रवि जल में प्रतिबिम्ब ।
यह धर्म प्रवर्तन का ही रूप है। यह योग की भाव दशा है । तन्मयता की इस स्थिति में चिन्मय परम आत्मानंद की दिव्य अनुभूति है, कैवल्य की चरम प्रतीति है । आत्मा के दर्शन से माँ मरूदेवा प्रथम केवली हुई । शरीर जड़वत् कर्मबंध से मुक्त वे प्रथम 'सिद्धा' के रूप में भी स्थापित हुई । धर्म प्रवर्तन का प्रभाव परिलक्षित हुआ । पश्चात् ऋषभ ने तत्वज्ञान का उपदेश दिया
देह और विदेह तत्व दो, नश्वर देह अनंत विदेह,
देह जनमता, मरता है वह, अमृत अजन्मा सदा विदेह । ऋ. पृ. - 157. इस सर्ग में आत्म सिद्धान्त की विशद विवेचना कवि ने ऋषभ के द्वारा की है, 'आत्मा परमात्मा का उपादान सत्य, शिव और सुंदर है ।' यह अतिसूक्ष्म परम चैतन्य है, 'मैं' 'हूँ' की अनुभूति आत्मा की परम सत्ता को व्यक्त करती है। इंद्रियाँ जहाँ अपने स्थूल स्वरूप में दृश्यजगत के विषय विकारों की ओर संकेत करती है, वहीं अमूर्त रूप में स्थापित आत्मा अपनी चैतन्य दशा का अवबोध देती है । कर्म, क्रिया और पुनर्जन्म का आत्मा से विशेष सम्बन्ध है ।' (पृष्ठ - 158-159)
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