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समक्ष सौधर्म लोक के अधिपति देवराज इंद्र की उपस्थिति आदिकाल में पृथ्वीलोक और देवलोक के मनोमय सम्बन्धों का बिम्ब प्रस्तुत करती है। ऋषभ की राज्य व्यवस्था संबंधी चिन्ता के निवारणार्थ इंद्र कहते हैं
सौधर्म लोक का अधिपति मैं हूं स्वामी !
श्री चरणों में आगत सेवा का कामी
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मानव की भूमी से सम्बन्ध पुराना
रहता है पुनरपि पुनरपि आना-जाना ।
ऋ. पृ. 55
युद्ध में सिंहरथ के सिंहनाद से पलायन करती हुयी भरत की सेना को ऐसा लग रहा था जैसे वीर वेश में स्वयं बाहुबली अथवा देवराज इंद्र उपस्थित हो गए हों
सिंहनाद से हुआ प्रकंपित, भरतेश्वर का सेना - चक्र
किया पलायन योद्धागण ने कौन ? बाहुबलि अथवा शक्र ? ऋ. पृ. 255
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दीक्षा के समय शत - सहस्त्रों लोक की उपस्थिति ऋषभ के ब्रह्म! स्वरूप का उद्घाटन करती है
विश्व का कल्याण करने, ऋषभ का अवतरण है। शत- सहस्त्रों लोक प्रभु के सामने आ रूक गए। बद्ध अंजलि भाव प्रांजल, शीश सबके झुक गए। मौन वाणी, आंखों ने ही, कथ्य अविकल कह दिया ।
स्नेह से अभिषिक्त बाती, जल उठा, 'अनहद' दिया।
ऋ. पृ. 94
ऋषभ के ब्रह्म स्वरूप की अभिव्यक्ति विधाता, धाता ओंकार आदि विशेषणों
से कर उनकी सर्वोच्चता व्यक्त की गयी है
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तुम विधाता और धाता, सृष्टि के ओंकार हो,
और सामजिक व्यवस्था के तुम्हीं आधार हो ।
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ऋ. पृ. 98 आहार के लिए चक्रमण कर रहे ऋषभ के चरण स्पर्श मात्र से ही कण-कण में संचरित उल्लास को स्वर्ग की आनन्दानुभूति से व्यक्त किया गया है